जातक : द्वितीय खंड | Jatak: Dwitiya Khand

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Jatak: Dwitiya Khand by रवीन्द्र कुमार जैन - Ravindra Kumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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6 [3] यों तो हर मन में इच्छाओं का, सागर लहराता है; दर उमड़ी बदली के लिए, पपीहा कौन नहीं ललचाता है! मद-मस्त चदनि चन्द्र देख, मन किसका नहीं लुभाता है! पुप्पित, बहुरंगी, बलखाती, बटलरियाँ कितने नूतन भाव जगाती हैं ! पर, कुछ ही हो पाते तृप्त -- शुष अलियों को तो तरसाती हैं । उन अतृप्त, अवसन्न, जडति अलियों का इतिहास किसी ने जाना? जग ने जीते को पूजा हारे को कब पहिचाना ! ज़िन्दगी अनेकों की, विफलता भरी अधूरी होती हे हर माँग नहीं सिन्दूरी होती दै, हर प्रीत नहीं अंगूरी होती दे । हर गंध नहीं कस्तूरी होती है । हर मन को हर बात....




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