मणिधारी श्रीजिनचंद्रसूरी अष्टम शताब्दी स्मृति ग्रन्थ | Manidhari Shrijinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smrti Granth

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Manidhari Shrijinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smrti Granth by अगरचंद नाहटा - Agarchand Nahta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ है 1 जैनघमं की ही दृष्टि से महत्त्व वाली हैं, अपितु समुच्चम भारतीय संस्कृति के यौरव की इष्टि से भी उतनों ही मदत्ता रखती है । साहित्योपाप्ना को इष्टि हे सरतरंगच्द्ध के विदान्‌ यति-मुनि बड़े उदारचेता मातूम देते हैं । इस विपय में उनकी उपासना का झेत्र केवल अपने धर्म या सम्प्रदाय को बाड़ से बद्ध नहीं है। वे जेन और जेनेउर वाइमय को समान भाव से अध्ययन -अध्यापन केएवै रहे है 1 व्याकरय, काव्य, कोप, घत्द, अलंकार, नाटक, ज्योतिष, बैक और दर्शनशास्त्र तक के अगशित अजेग श्रस्यों का उस्होंने बड़े आदर से आकलन किया है भौर इन विषयों के अनेक अजेन ग्रत्यों पर उन्दोंदे अपनी पाष्डिट्यपूर्ण टीका आदि रष करं तत्त्‌ प्रत्थों और दिययों के अध्ययत कार्य में बड़ा उपयुक्त साहित्य तेयार शिया है। छग्तरगच्य के गौरव को प्रदर्शित करने वालो थे सब बाते हम यहां पर बढ़त हो संक्षेप में, केवल मूत्रह्म से, उस्लिखिड का रहे हैं । विशेषभ हम “'पुगप्रधा चाचा गुर्वावलि” नाम से दिस्तुत पुरातन पट्टा- वो प्रकट कए चुके हैं. उगएें इन जिनेश्वरसुरि से आरंभ कर, श्वीजिनवत्लभपूरि कौ परम्परा के सरवण्गच्दीय भावा श्रोजिनरपपूरि के पटामिपिक्त होने के समप दक कान्विक्रम संव्तु १४०० के लगभग का बहुत विस्तृत और प्राप' निदवस्त ऐतिहासिक वर्णन दिया हुआ है। उसके अध्ययन से पाठकों को लरतरंगल्छ के तत्हालौन गौरब-गावा का मच्छा परिचय मिल सकेगा इस तरह पोछे से बहुत प्रस्तिद्धप्राप्त उक्त घरतरगच्छ के अतिरिक्त, जिनेदवरसूरि की शिप्य-परम्परा में से अन्य भी कई-एक छोटे-वढ़े गण-गच्छ प्रचलित टूए और उनमें भी कई बड़े-बड़े प्रसिद्ध दिद्वात, प्रन्यक्रार, व्याष्यानिरू, वदो, पश्व, चमकारो सापु-यति हए जिन्दोनि भयते व्यक्तित से जेन समाज को समुनत केम उत्तम योग दिया । जिनेशवरसूरि के जीवन का अन्य यत्तिन्नों पर प्रभाव जिनेश्वरसूरि के प्रदन पाण्डित्य मौर उत्दण्ट चरित्र को प्रभाव इस तरह ने केवल उनके निजके शिष्य ममूड में हो प्रह्ारित हुजा, अपितु तक्तालीन अन्यान्य गच्छ एवं यति समुदाय के भी वढ़े-बढ़े व्यत्तिस्वशाली यतिजतों पर उसने गहय भभर डाला धौर उसके कारण उनमें से भो कई समर्थ व्यक्तियों ने, इनके अनुररण में क्रिपो द्वार, शानौपा सना, आदि की विशिष्ट प्रवृत्ति का वदे उराह के षाय उत्तम अनुसरण किया । ([ जिनेशवरसूरि के लीवन सम्बन्धो साहित्य और उनवीं रचनाओं मा विशेष अध्ययन मुनि जिनविजय ने कथा कोप की विस्तृत प्रस्तावना में बहुत विस्तार से दिया है, यहां उमके आवश्यक अथ ही प्रस्तुत किये गये है )) जिनेदवरसूरि से जेन समान में नूनन युग फा आरंभ इनके प्रादुर्भव और कार्पकलाप के प्रभाव से जैन समाज में एक सर्या नवीन युग का आस्म होता शुरू हुआ । पुरातन प्रचलित भावनामों मे परिवर्तन होने रगा 1 श्यामो शौर यदस्य दोनो प्रकारके समूहो में नए संगठन होते भृष्ट हृ । त्यागो बात यि वं जो पुरानेन परप्रगते गण और कुछ के रूप में विभक्त था, वह भव नये प्रहार के ग्च्छों के रुप में संगठित होने लगा । देशना भौर गुर उपासना की जो कितनी पुरानों पद्धतिया प्रचलित थीं, उनमे संगोधत घर पश्वितंव के वातावरग का सवंत्र उद्धष होने छगा । इनके पहले यहिव्ग का जो एक बहुत डा समूह चेत्य निवासी होकर चेत्यो को सप्ति ओर्‌ रुरक्षा का अधिकारी बना हुआ या और प्राय. शिविलक्रिय और स्वपूुजानिस्त हो र्दा था, उमे इनके याच) मकण और प्रमणशौल जौवन के श्रभा। से बड़े वेग से और बढ परिमाण में परिवर्तन होना प्रारम्भ हुआ 1 इनके आादणों




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