संस्कृत नाट्यसिध्दान्त | Samskrta Natyasiddhanta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६ नाच्यसिद्धान्त णद्‌ धाहु को कुछ ही विद्वानों ने 'दती' के बजाय 'नती' अर्थ में माना है । घडादिगण पठित घातुओ को मिद्‌ संज्ञा होकर. ह्लस्व हो जाता है । मतव सी सवस्या मे नारक पदमे मी हस्व होकर “घढ़क' के समान टक पद अनना चाहिये । इनके गनुसार उस धातु से नाटक शब्द नही वन सकता है । किन्तु नाट्य दपंणकार ने झमिनवगुप्त नी व्याख्या पर जो आपत्ति की दै, बह घटादिगणस्थ नट्‌ घातु को नव्यर्थक मानने पर ही वन सक्ती ह 1 पुनश्च अभिनवगुप्त केव नमनायेक धातु खे ही नही भपितु नतंना्ंक धातु मी नाटक दाब्द की व्युत्पत्ति मानते हैं 1” फिर यहं भी सम्मव है कि अभिनवगुप्त केवत उसी स्थल प्र नट नतौ पाठ मानते हो, अन्यत्र नही । ऐसी दा में उनकी व्युत्पत्ति मे कोई दोप नहीं होगा 1 नाटघदपंणकार के अनुसार नतंतायक नद्‌ धातु से नाटक शब्द बना है* यही मत समस्त विद्वानों को मान्य है । यहीं नाट्यरूप भी कहलाता है । इसी को श्ख्पके' कौ भी संज्ञा प्रदान थी गई है । जैसे रूपक अलंकार मे मुख पर 'चन्द्मा का आरोप कर दिया जाता है, वैसे हो नटपद रामादि पात्रों की अवस्था का मारोप कर दिया जाता है। इस प्रकार हम देखते है कि एक ही अधं मे नाट, रूप तथा रूपक इन तीन शब्दों का प्रयोग किया जाता है । नाट्यं को द्र्य काव्य मी कहा जाता दै । दृश्य काव्य अभिनयार्थ लिखा जाता है, इसीलिए इसे 'अभिवेय काब्य' की थी संज्ञा प्रदान की गई टै। इसमे नट, रामादि का स्वरूप घारण करके अभिनय करते हैं । ,इस प्रकार हेम इस निष्कपं पर्‌ पचते ह कि इस नाटय को विविध सज्ञागों से अभमि- हित किया गया है । ते सम्प त्रंरोक्यभावो का अनुक रण नाट है3 । धनञ्जय ने भी ददरूपक के प्रारम्भ में मवस्वा का मनुकरण नाटप है' बताया है 1 अंग्रेजी के प्रसिद्ध नाटककार, कोवि तथा झालोचक द्राइडेन ने भी स।टको को मानव प्रकृति और १. नाटकं नाम तच्चेष्टितं प्रह्वी ावदायके भवति तथा ददयानुप्रवेश- रञ्जनोल्लासनया हृदय शरोर चˆ-नतंयति ˆ नाटकमु । ॐ ( अभिनवभारती, १८ अध्याय, प° ४१२३ } ¦ २. नाटकमिति नाटयति विचित्रं रञ्जनाप्रवेरेन सभ्याना इदयं नतंयति इति नाटकम्‌ 1 ( नारदम, प° २५ ) ३, बरैखोकस्यास्य सवस्य नाटथमावानुकीतंनम्‌ 1 लि (मरतनादघशास्त्र है, १०४) ४. अवस्थानुकृतिनाटियमु । ( ददाहूपक, प्रथम प्रकाश }




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