ऋग्वेद के दार्शनिक सूक्तों का आलोचनात्मक अध्ययन | Rigved Ke Darshanik Sukto Ka Alochanatmak Adhyayan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
27 MB
कुल पष्ठ :
337
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about मुरली मनोहर पाठक - Murali Manohar Pathak
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(क) दर्शन शब्द की व्याख्या :
मनुष्य एक विचारषील प्राणी है । विचारीलता उसका अवियोज्य आकस्मिकं गुप है । वह
ससार मे जिस किसी पदार्थ अथवा घटना को देखता है उस पर अवश्य ही विचार करता है । यह
विचारशीलता ही उसे पशु से भिन्न करती है और दर्शन को जन्म देती है । दर्शन शब्द की निष्पत्ति
'दूशू' धातु से भाव के अर्थं मे ल्युट् च (अष्टा 3 3 115) इस पाणिनीयसत्र के द्वारा ल्युट् प्रत्यय के
योग से हुई है । अत इसका अर्थ देखना हुआ । इसका एक अन्य अर्थ ~ दृष्यते अनेन इति दर्शनम्!
अर्थात् जिसके द्वारा देखा जाए वह दर्शन है, होता है । इस प्रकार 'दर्शन' का अर्थं 'देखना' ओर देखने
का साधन' दोनो सिद्ध होते है ।
दूसरे अर्थ मे दर्शन, दृष्टि को कह सकते है । महाकवि कालिदास ने इसे इसी अर्थ मे प्रयुक्त
किया है । चिन्ताजड दर्शनम् आचार्य यास्क ने भी 'दृष्टि' शब्द का प्रयोग दर्शन के अर्थं मे किया
है ।*” योगवाशिष्ठ मे भी 'दृष्टि' का प्रयोग इसी अर्थ मे किया ग्या है ।3
दृष्टि हो जाने के उपरान्त मनुष्य कुछ देखेगा - प्रत्यक्ष करेगा । यही प्रत्यक्षीकरण 'दर्शन'
के प्रथम अर्थ को चरितार्थ करता है । इसके भी दो स्वरूप हो सकते है - प्रथम, इन्द्रियजन्य तथा
द्वितीय, अन्तर्दृष्टि द्वारा अनुभव तात्पर्य यह है कि अभीष्ट अर्थ का प्रत्यक्ष चक्षुरादि स्थूल इन्द्रियो तथा
अन्त करण की सूक्ष्म वृत्तियो से भी हो सकता है । इसी प्रत्यक्षीकरण की क्रिया द्वारा ऋषियो का
ऋषित्व प्रमाणित होता है । उन ऋषियो ने स्वय धर्म का साक्षात्कार कर अन्य लोगो को उसका उपदेश
दिया ।“ यौ धर्म का अर्थ धर्मविशेष न होकर जगत् के मूलत्त्व से है । अब प्रश्न यह उठता है कि
ऋषि या सामान्य जन किस त्त्व का प्रत्यक्ष करते है ? वह त्त्व सार्वभौम होना चाहिए । उसमे अन्य
सभी अर्थो का अन्तर्भाव भी होना चहिए । इस् प्रकार विचार करने से यह प्रतीत होता है किं सत्यः
व वि वि ए ए 1 ए ए 7 है न नमक
1 अभिज्ञानशाकुन्तलम् - 4 8
2 एवमुच्चावचैरभिप्रायै ऋषीणा दृष्टयो भवन्ति । यास्क, निरुक्त - 7 1 4
3 ततोऽस्मदादिभि प्रोक्ता महत्यो ज्ञानदृष्टय । योगवाशिष्ठ - 2 16
4 ऋषिर्दर्शनात् । यास्क, निरुक्त - 2 11
साक्षात्कृतधर्माण ऋषयो बभूवु । तेऽवरेभ्योऽसाक्षात्कृतधर्मेभ्य उपदेशेन सम्प्रा । वही - 1 20
User Reviews
No Reviews | Add Yours...