प्राच्यदर्शनसमीक्षा अर्थात सर्वसिद्धान्तसमालोचना | Prachyadarshan Samiksha Arthat Sarvasiddhant Samalochana

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Prachyadarshan Samiksha Arthat Sarvasiddhant Samalochana  by साधु शान्तिनाथ - Sadhu Shantinath

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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{ड} अब मेरे छिये दो मागी उन्मुक्त है, या तोम किसी पेसै सिढान्त को आलिद्न करू, जिसके विपय मेँ मुद्को श्रव निश्चय दो चुका है कि यह किसी प्रकार भी (विचार या अनुभव दवाय) सिद्ध नर्द दो सकता, अथवा पकापक समस्त सिद्धान्तो का परिन्याग कं । अर्थात्‌ यातो मे अपनी विवेक्रवुद्धि को प्रतारित करके किसी पसे सिद्धान्त को स्वीकार करूं, जिसको म दोपयुक्त ओर विचाररहित समझता हूं अथवा साइस पूर्वक समस्त मर्तो को अस्वीकार करके अपनी घिवेकवुद्धि को स्वयं धोखा न दूं । विचारझीलता और सरलता यही चादती है कि, में द्वितीय पक्ष को आर्छिगन करू । दादनिक विचार का यदी उदेश्य होता है कि, दोषयुक्त सिद्धान्तो का तिरस्कार करते टप निर्दोप सिद्धान्त मे उपनीतं होवे । परन्तु यदि सस्टता आर उत्साह के साथ यथासाध्य प्रयले करने के पश्चात्‌ भी ऐसा निर्दोष सिद्धान्त प्राप्त न होता हो, तो हमको अपनी अप्राप्ति को छिपाना न्दी चाहिए भर न किसी सिद्धान्तथिशेष को दी अन्तिम मानकर उसे स्वीकार करने के लिए चिवद्या होना चाहिए । हमलोगों को चाहिए कि हम अपनी निप्कपटता को वैखा दी बनाये रखे, जेसा कि पक सत्य के अन्वेपक को उचित है । जब हम दादनिक विचार में प्रवृत्त हुए, तब हमको सत्य से परादमुख कभी नहीं होना चाहिए, चाहे इसके लिये हमको मूल्यवान रूप से प्रतिभासमान पदार्था से वञ्चित क्यों न होना पडे 1 श्रद्धा अति दीन पदार्थ है, यदि चह हमको सत्य के भ्रति सन्मुखीन दोने मे संकुचित कर दे । किसी भी दानिक सिद्धान्त को स्वीकार न करने का मेरा यह निर्णय, यद्यपि भूलतत््व की प्राप्ति की. असमर्थता को सुचित करता है, तथापि इससे मेरे हृदय में कोई भी विपाद या अदयान्ति का भाव उत्पन्न नहीं होने पाया, क्योंकि में इस निश्चित घारणा को प्राप्त हो चुका हूं कि, प्रत्येक सरल और पक्षपात रहित दादनिक अनुसन्धान का यद अवश्यम्मावी फल है । तत्वविषयक जितने भी साम्प्रदायिक संकीर्णतामूलक श्रान्त धारणाये ह, उन सबसे अपने हृदय को सुक्त करके, तथा विचारवुद्धि का यद चिर डुराश्रद कि, वह इस टृइयप्रपश्व के मूठ में तत्वविंपयक




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