अभिनव नाट्य शास्त्र [खंड 1] | Abhinav Natya Shastram [Khand 1]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तांवना न € ^ ७ बन होते हैं उन सर्वज्ञ नय्वर विष्णुजी आर मरतको मे प्रणाम करता हूँ । | लि इसीलिये.. भक्तोंने भगवानके इन चरितेकों सीव लीला करना प्रारम्भ कर दिया भौर सभी लोग ल्यलै या नास्य इसी भावनासे अधिक रस लेने लगे कि जब स्वयं भगवान दी टीला करते है, अभिनय करते हैं; तो मनुष्य क्यो न करे । क्योकि स्वयं भगवानने ही तो कटा दै- य ग्रदाचरति श्रे एस्तत्तदेवेतरो जनः । स ग्रदममाणं कुरूते लोकरतद नुवत्त॑ते ॥ ( गीता-३, ६१) [श्रेष्ठ छोग जैसा काम करते हैं वैसा ही दूसरे लोग भी करने लगते हैं क्योंकि श्रे रोग जो काम करते है वदी प्रमाण वन जाता है और सब लोग उसे ही ठीक म नकर वेसा दी करने ठगते हू । | नायखयका लोकिक पच् € 8 लोकव्यवहारेऽपि नास्यप्राघास्यम्‌ ॥ २॥ [- छकके.व्यवदारमं मी नाय्यका प्राधान्य है । [| नास्यके आध्यात्मिक और रद्दस्यमय पक्षके अति- रिक्त उसका लौकिक महत्त्व भी है। हम लोग अपने- अप्रने व्रतम फटे-पुराने, मेले-कुचैठे कपड़े पहनकर निर्वाह कर्केते है किन्तु जव हमें व्याह-बारात, समाज-उत्सवर्म जाना पड़ता है तो हम बाँकी चुनट दर धोती, दूधिया धुल, हुभा कुत्ता, सुनहरी पाड़का दुपट्टा, रेशमी पाग और चरमराता कोमल मखमली जोड़ा डाय्कर निकलते हूं । यह सब श्रज्ञार केवल नाथ्य ही तो है रोग-गय्यसि उटनेप्र जब कोई हमसे पूछता, है कहिए चित्त केसा है, तब दम अत्यन्त विनीत तथा कृतज्ञतापूर्ण मुद्रामँ कदते दै--भापकी कृपासे अब अच्छा हैं। ईश्वर और वेद्यकी इपाकी उपेक्षा करके हम दिष्टाचारवदा अपनी स्वस्थताका कुछ श्रेय कुचल पूछने- वाठिका द॑ डालते हैं । यह दिष्टाचार-प्रद्यान थी तो कोरा नास्य दी है । कुर्क वक्रता जव वड सादर भौर विनयपूर्ण दामं अपने ग्रादक्के सगे सपनी वस्तुको संरादत। [३ एप्त ८5 ०४२. ॐ हभ, अपनी सत्यता सौर निरलॉमिताका प्रवचन करता हुआ, अत्यन्त दैन्य मुद्रा साधकर, व्याग जर सचा्ईका सटीक नाय्य करके, अपनेको हरिश्वन्द्र और युधिष्ठिर सिद्ध करनेका उपक्रम करता है, उस समय उसका व्यवहार नाय्य नहीं तो और क्या है । : इसी प्रकार जीवनके सभी क्षेत्रीॉंमें. अधिक सफलताका सौभाग्य उसीकों प्राप्त होता दिखाई देता है' जो इस प्रकारकी नास्य-कलामेँ पूर्णतः कुद्दल सर निष्णात होते हैँ। विचित्र बात तो यह है कि बड़े-बड़े विचक्षण सुधी लोग भी सामाजिक व्यवहारके इस कृच्चिम: किन्तु सफल अभिनयको दी रिता, शील, व्यवदा।र-कुशल्ता मौर चतरताकी उचित पररमावथि मानते चले आए हैं । इस दृष्टिसि हमारे समाजका सम्पूर्ण शिष्टाचार एक एेसा विराय्‌ अभिनय है जिसके असफल या सतिरञ्जित अभिनयके लोग ढोंग, आडम्मर, प्रवज्चना, दिख,वा य। बनावट कहते हैं, भोर सफल तथा समुचित अभिनयको दिष्टाचार कहते हे। सतः सपने सामाजिक जीवनको पूर्णतः सपक चनानेके छिये भी यह आवश्यक हैं कि दम साच्िक, जाड़िक, वाचिक और थादार्य अभिनयमें ऐसे कुशल हो जायेँ कि अवसर गौर व्यक्तिके अनुकूल हम अपने भाव, सपनी चेष्ट, सपनी वाणी, अपना व्यवहार गौर्‌ अपना स्वरूप व्यवस्थित कर सकें | शिष्टाचारके इन साम,न्य व्यवहारोंकें अतिरिक्त भी हम विशेष संस्कारों, उत्सवों और पर्वोपर कभी कभी नाव्यका ठीक उसी रूपमेँ प्रयोग करते हे जैस! रङ्गमञ्चपर अमिनय दिखानेके छथि भभिनेता करते हे । यज्ञोपवीत संस्कारके समय जव नया माणवक मैखला यर कौपीन बोधकर, खड़ाऊं पहनकर, बाएँ कन्धेपर पलाशा-दण्ड, पीठपर करष्ण.जिन सर दाने दाथमें भिक्षापात्र लेकर भवति भिक्षा मे देदिः कता हुमा अपने घरमेँ संस्कारके समय एकत्र हुए नरनारियाँसे मिक्षा माँगता है, वदद वैदिक युगके ब्रझमचारीके आाचरणका झुद्ध नाव्य मात्र ही तो होता है । इसी प्रकार पाणिग्रहण-संस्कारके अवसरपर वरके मुहपर हरिद्रा या कु कुमका लेपन करके, उसकी लाँखोंमें काजछ लगाकर, उसके सिरपर फूलोका मुकुट बाँधकर और पीला या गुछाबी वस्र पहनाकर, उसे सुसजित नाढकी, पालकी, घोड़े-गाड़ी या हाथी इस्यादिपर बैठाकर जो बाजे-गाजेके




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