सुकुल की बीबी | Sukul Kii Biibii

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Sukul Kii Biibii by श्रीसूर्यकान्त त्रिपाठी निराला - Shree Soorykant Tripathi Nirala

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सुकुल की बीबी ११ था । कत्पना में सजने के तरह-तरह के सूट याद आए, पर; वास्तव मे, दो मैले कुर्ते थे । बड़ा गुस्सा लगा; प्रकाशकों पर । कहा; नीच हैं, लेखकों की क़द्र नहीं करते । उठ कर मुंशी जी के कमरे में गया, उनकी रेशमी चादर उठा लाया । क्रायदे से गले में डाल कर देखा, फएवती है या नहीं । जीने से आहट नहीं मिल रही थी, देर तक कान लगाए बेठा रहा । बालों की याद आईइ--उकस न गए हों । जस्द-जल्द आइना उठाया। एक बार भंह देखा, कई बार आँखें सामने रेल-रेलकर । फिर शीशा बिस्तर के नीचे दबा दिया | शो की -'गेटिंग मेरेड' सामने करके रख दी ¦ डिक्शनरी को सहायता से पढ़ रहा था, डिक्शनरी किताबों के अंदर छिपा दी । फिर तन कर गंभीर मुद्रा से बैठा । आगंतुका को दूसरी मंजिल पर आना था । जीना गेट से दूर था । फिर भी देर हो रही थी । उठ कर कुछ कदम बढ़ा कर देखा, मेर बचपन के मित्र मिस्टर सुकुल आ रहे थे । वड़ा बुरा लगा यद्यपि कड्‌ साल वाद्‌ की मुलाक़ात थी। कृत्रिम हंसी से होंठ रंग कर उनका हाथ पकड़ा, और लाकर उन्हें बिस्तरे पर बेठाला | बैठने के साथ ही सुकुल ने कहा--““श्रीमतीजी आई हुई हैं ।” मेरी रूखी जमीन पर आपाढ़ का पहला दोंगरा गिरा ।




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