कालिदास की निरंकुशता | Kalidas Ki Nirankushata
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
76
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कालिदास की निरङ्कशता । ७
व)
का न्याय श्नापसे नही चाहत कि हमारा यह काम उचिते या
्रनुचित । हम सिफ श्राप से इस उचित या श्रनुचित काम कं
लिए क्षमा चाहते हैं । दम सिफ ध्रापसे दया के प्रार्थी हैं । हमारी
प्राथना स्वीकार करना या न करना स्वधा भाप ही कं
हाथ में है ।
(९) उपसा की होनता ।
उपमालझार में और कोई कवि कालिदास की बराबरी नहीं
कर सकता । कालिदास से अपनी उपमाओ्ं में उपमान श्र
उपमेय का ऐसा श्रन्छा साटश्य दिखलाया है जैसा और किसी
की उपमाओओं में नहीं पाया जाता । इनकी उपमाओं में लिड् झ्रार
वचन-सम्बन्धी भद प्रायः कर्हा नहीं देखा जाता । उपमा से इनकी
वण्यं वस्तु इतने विशद भावस हृदय में श्रद्धित हा जातीरहै कि
इनको कविता का रसास्वादन कदं गुणा अधिक अ्मानन्ददायक हौ
उठता है । यह सब होने पर भी इनके काव्यां में कुछ उपमाये
एसी देखी जाती हैं जो इनकी श्रन्यान्य उपमाओओं कं मुकाबले
मे बहुत हीन हं । एक उदाहरण लीजिए :--
लवण नामक रात्तस क भ्रयाचारों से पीडति होकर देव
ताओं ने रामचन्द्र की शरण ली । उन्होने प्राथनाको कि इसे
प्राप मारिए । रामचन्द्र ने यह काम शचत्र के सिषुद करिया |
इस विषय में कालिदास रघुवंश के पन्द्रहवें सगं में कहते ह :--
यः कश्चन रघूणां हि परमेकः परन्तपः ।
श्रपवाद दवोत्सग व्यावतेयितुमीरवरः ॥ ७ ॥
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