भारतीय प्रतीकविद्या | Bharatiy Pratikavidya

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Bharatiy Pratikavidya  by जनार्दन मिश्र - Janardan Mishr

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ज ) ओर श्रद्धास्पद वस्तुजो की निन्दा करने रगे ओर उन्हँं समभने की चेष्टा करने के बदले अपशब्दों का व्यवहार करने लगे । प्रतीको के समभनैमें भी हमने वसी हीभूलकीहै। युरोपीय विद्वानों ने कहा कि भारतीय शिवलिंग के रूप में दिइन की पूजा करते हैं, तो एक दिदनमूत्ति मिलने पर श्रीगोपीनाथ राव ने प्रतिपादन करने की भरपुर चेष्टा की कि यहां भारतीय शिवलिंग का आंदिरूप है। गत पंतीस-चालीस वर्षों से निरन्तर अनुसन्धान करने पर में ने यही पाया कि भारतीय सभ्यता का प्राचीन से प्राचीन रूप अत्यन्त उच्चकोटि का है, जिसकी चरम सीमा वेद में पहुँची हुई है, अ।र इसके प्रारम्भिक रूप का पता लगाना मानव-शक्ति से बाहर है। यदि डारविन का क्रम-विकास का सिद्धान्त मान लिया जाय कि तियंग्योनि का विकसित रूप मनुष्य शरीर है और सभी वस्तुओं का आदिरूप बेढंगा होता है और कालक्रम से उसमें सुन्दरता अती है, तो भारतीय सभ्यता के भादिरूप का पता नहीं लगेगा । किन्तु, यदि भारतीय क्रम-विकास का सिद्धान्त मानें कि सृष्टि की रचना ऊपर से होती है नीचे से नहीं, अर्थात्‌ ब्रह्मा के मानसपुत्र हुए, उनसे सतधि, फिर मनु और इस प्रकार सृष्टि का विस्तार नीचे की भर होकर तियंग्योनि की पीछे सृष्टि हुई या एक साथ ही हुई, तो इसके आदिरूप का विवरण पुराणों में दिया ह। हुआ है । सासंश कि वेद में असभ्य चरवाहों के समाज का विवरण नहीं है । वेद विशुद्ध ब्रह्मविद्या है। इसमे ऋषियों कौ ब्रह्मविद्या की स्वानुभूति का विवरण है । जो. ब्रह्मविद्या की साधना करते हैं, वे इसे स्वानुभूति के रूप में पाते हैं। इसे तकंमूलक और संकल्पविकल्पात्मक लेख, साहित्य या दर्शन की तरह पढ़ने से सबंदा आ्रान्ति होगा । वेदमंत्र साधना और ब्रह्मानन्द के विषय हूँ । वेद और शास्त्रों के इन स्वरूपों को ध्यान में रख- कर कहा गया है कि 'ये त्वताकिका भावा न तांस्तकेण योजयेत्‌ , अर्थात्‌ जो तकं-वितकं के बाहर ( अनुभव) की वस्तुएं हैं, उन्हें तक के क्षेत्र में न लावें । इसलिये भारतीय संस्कृति के समभने में जो लोग सभी कार्यों के कारण खोजने में अटकल लगाते फिरते है, वैसे लालबुभक्कड़ों को हेतुवादी कहकर उसकी निन्दा की गई है । एक ही वस्तु का भिन्न-भिन्न भावनाओं से देखने से उसके भिन्न-भिन्न रूप दिखाई पढ़ते हैं । वेदाध्ययन मे या भारतीय सभ्यता के अनुशीलनमे अभारतीयों के भाव वेदानुयायी के भावों से अवदय भिन्न होगे ओर अनेक स्थलों पर विपरीत भी होंगे । यह सब कुछ होने परमभी सौ वर्षो तक वैदिक विषयों और साहित्य का भध्ययन कर युरोप के विद्वानों ने जो सामग्री की विशार राशि एकत्र कर दी है, वह्‌ सभी वेदानुयायी पण्डितो की अमूल्य सम्पत्ति है गौर परीक्षण कै च्यि अवश्य पठनीय है। इस पुस्तक के विषय में कई मित्रों ने कई प्रकार से प्रइन किये । एक ने पूछा कि क्या आपने किसी सिद्धान्त को मानकर उसके प्रमाण टू ढ निकाले । पेसा प्रश्न करना स्वभाविक है; क्योकि प्रायः लोग ऐसा करते देवे जाते हैं। इसलिये इसको स्पष्ट कर देना आवदयक है । | मेने अपने अनुरीलन ओर अनुसन्धान के विषय में निम्नलिखित प्रणाली को अवलम्बनं किया) पहिला प्रन हुमा कि साप विष्णु, शिव, कृष्ण, देवी अदि प्रतीको के साथदहै।




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