हिन्दू धर्मकोश | Hindi Dharamkoush
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
45 MB
कुल पष्ठ :
717
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सर्प बनाना था । नहुप इन्द्र का पद प्राप्त करके शची को
ग्रहण करना चाहता था । शची ग शर्त पूरी करने के
छिए वह सात ऋषियों हारा ढोयी जाने वालो पालकी
पर बैठ गची के पास जा गहा धा । उसने रास्ते मे अगस्त्य
के सिर पर पैर रखे दिया और शीघ्रता से चलने के
लिए 'सर्प-सर्प' भहा । इस पर ऋषियों ने उसे 'सर्प' हो
जाने का उस समय ता के लिए झाप दिया, जब तक
युधिष्ठिर उसका उद्धार न करे) महाभारत का नहुषोपा-
ख्यान इसी पुराकथा वें आधार पर लिखा गया है 1
सस्कृत ग्रन्थो मे अगस्त्य का नाम विन्ध्य पवंत-माला
की असामान्य वृद्धि को रोकने एवं महासागर को पी जाने
के सम्बन्ध में लिया. जाता हैं । थे. देक्षिणावत में आयं
सस्कृति फे प्रथम प्रारक न ।
शरीर-त्याग के वाद अगन्त्यका आका कै दक्षिणी
भाग में एक अत्यन्त प्रपज्लमान तार के रूप में प्रतिष्ठित
किया गया । एस नक्षत्र को उदय सूय के हस्त नक्षत्र में
आने पर होता है, जब वर्षा ऋतु समाप्ति पर होती है । इस
प्रकार अगस्त्य प्रकृति के उस रूप का प्रतिनिधित्व करते है
जो मानसुन का अन्त कर्ता हे एव विश्वास की भाषा में
महासाग का जल पीता है (जो फिर से उस चमकीले सूर्य
को लाता है, जी वर्षा काल में बादलों से छिप जाता हूं
और पौराणिक भाषा मे विन्ध्य की असामान्य वृद्धि को
रोककर भूय को माग प्रदान करता हूँ) ।
दक्षिण भारत मे अगस्त्य केण सम्मान विज्ञान एवं
साहित्य के सर्वप्रथम उपध्घावा के रूप में होता है । वे
अनक प्रमिद्र तमिल ग्रन्थो क रगयिता ह जान ह् । प्रथम
तमिल व्यवरण की रखना अगस्त्य ने ही पी थी । वहा
उन्हें आ भी जीवित माना जाता ह जो साधारण भॉखो से
नही दीसते तथा वावनकोर फी गृन्दग अगस्त्य पहाड़ी पर
बास करते माने जात है, जहाँ से तिन्नेवेी की पवित्र
पोरुनेई अथवा ताब्रपर्णी नदी का उद्भव होता हैं ।
हेमचन्द्र के अनुसार उनये पर्याय है (१) कुम्भसम्भव,
(२) मित्रावरुणि, (3) अगस्ति, (४) पीताब्धि, (५) वातापि-
दद्, (६) आग्नेय, (७) ओर्वलेय, (८) आग्निमारते, (९)
घटोद्धूब ।
अगस्त्यवर्ान-पजन-- मुय जत्र राशि-चक्र के मध्य मे अवस्थित
होता है उस समख अगस्त्य तारे को देवने कं पश्चात्
रात्रि में उसका पूजन होता है। (नीलमत पु०, श्लोक
९३४ से ९३५ |)
अंगस्त्यवर्शन-पुजन-अग्ति
अगस्ट्थाध्यंदान--इस धरत मे अगस्त्य को अघ्यं प्रदान किया
जाता है। दे० मत्स्य पु०, अ० ६१, अगस्त्थोत्पत्ति के लिए
दे० ग० पु०, भाग १, ११९, १-६। भिन्न-भिन्न प्रदेशों
म अगस्त्य तारा मिन्न-भिन्न कारो मेँ उदय होता हं ।
सूर्य के कन्या राशि में प्रवेश केसे तीन दिन भौर बीस
घटी पूर्वं अध्यं प्रदान किया जाना चाहिए ।द० भोजका
राजमार्तण्ड ।
अग्नायो--अग्नि की पत्नी का एक नाम, परन्तु यह् प्रसिद्ध
नहीं है ।
अग्नि--(१) हिन्दू दवमण्डल का प्राचीनतम सदस्य, वैदिक
सदधिताओ ओर ब्राह्मण ग्रन्थो मे इसका महत्वपुर्ण स्यान
है । अग्नि के तीन स्थान और तीन मुख्य रूप है--
(१) व्योम में सूर्य, (२) अन्तरिक्ष (मध्याकाज) मेँ विद्युत्
और (२) पथ्वी पर साधारण आग्नि । ऋग्वेद में सबसे
अधिक सूक्त अग्नि की स्तुति में ही अर्पित किये गये है ।
अग्नि के आदिम रूप ससार के प्राय सभी धर्मों में पाये
जाने हैं । वह 'गृहपति' हैं ओर परिवार के सभी सदस्यो
गे उसका स्नेहपूणं धनिष्ठ सम्बन्ध है (ऋ०, २ १. ९,
७ १५ रैर, १ १ ९, ४ १ ९; ३ १ ७)। बह
अन्धकार, निशाचर, जादू-टोना, राक्षस और रोगो को
दूर करने वाला हे (ऋ०, दे ५ १, १ ९४ ५, ८
१९ ८८ २) 1 अग्नि वण यज्ञीय स्वरूप
सानव सभ्यता के विकास का लम्बा चरण है । पाचन
ओग उक्ति-निर्माण की कल्पना इसमे निहित हं । यज्ञीय
अग्नि वेदिका में निवास करता है (क्ण १ १४०
१) | वह समिधा, घृत मौर मोममे गक्तिमान् होता द
(ऋऽ ५ १०, १ ९4 १४), वह मानवो आर
देवो के बीच मध्यरथ और सन्देशवाहुक है. [ऋण वेऽ १
०६ १ श ९४ डे + १ ५५ ३ \ प ५५९ 4 , ७ २
१; 4. ५ {8.५५ $ 9 ४ $ १५.
१० > १,१ १८ ४ आदि) । अग्नि कौ दिव्य उत्पत्ति
का वर्णन भी वेदों में विस्तार से पाया जाता है (ऋ
३५५.६ ८ ५1 अग्नि दिभ्य पुरोहित हैं (ऋण
२ १ २,१. १ १,१.९४ ६) चहु देक्ताभों का
पौरोहित्य करता ह । वह् यज्ञो का राजा है (गाजा त्वम-
ध्वराणामु, ऋ० बे० ३ १ १८, ७ ११.५४; २८
३, ८ ४३. २८ आदि) ।
नेतिक तत्वोमे भी अग्नि का जभिन्न सम्बन्ध है
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