साहित्य तरंग | Sahitya Tarang

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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4 म ६ निर्माण-कार्य आरम्भ किया है । आतप और शीत, वर्षा श्रौर बयार से अपनी भीनी -चद्रियाः की र्ता के लिए ही उसने घर बनाये | “स्थिति घारणा' की नियोजना से ही उसने श्राखेट विधि, फिर कृषि विधि और फिर तंतुवाय व्यवसाय को जन्म दिया | ऋतएव कन्ञा का स्थूल और च्रादिम खूप इन्हीं ेहिक श्रावश्यकताओं के सैंजोने में तन्न हुश्रा] परंतु कला इ शारीरिक उपयोग से च्रागे बद चुकी है। ऐडहिक आवश्यकताओं में समय के साथ वैविध्य श्रौर श्ननेकरूपता श्रादई श्रत्व भौतिक साधनों में भी उनकी योजना परमावश्यक हुई । इस व्यापार ने कला के स्वरूप को विकसित किया | उपयोगिता कता से ऊपर उठकर मानसिक जगत्‌ तक पहुँची द्रतएव कला को मानसिक उपयोगिता शौर अ्रावश्यकता की निबंधना भी करनी पड़ी । साधनों में भौतिक उपकरणों के स्थान में मानसिक उपकरणों की योजना होने लगी | कहा ललित-कला बनी । श्रागे चलकर कला वह चातुरी रह गई जिसके द्वारा भौतिक ' दार्थों झथवा मानसिक उपकरणों में वह विशेषता श्रा जाय कि मानव कृति का भदत बड़त बढ़ जाय | इस विशेषता को सोदये संज्ञा मिली ।* जिस प्रयास से मानव कृति में स'दयं की योजना की जादी है उसको ही श्राजकल कला कहते हँ | श्रतएव कृला मानव कृति की सहेतुक व्याख्या बनी | दी भारतीय ग्रंथों में कला की चचा । भारतीय यथो मेकला शब्द का प्रयोग बराबर मिलता है । चोसठ कलाएँ अथवा सोलह कलाएँ विधि चातुरी की ही व्याख्याएँ हैं | * ... संस्कृत ग्र थों में 'कला' शब्द कई विशेष अ्रर्थों में प्रयुक्त हुआ है| चंद्रमा की सोलह कलाएँ प्रसिद्ध हैँ | उनके नाम किसी भी अ्ंथ में मिल सकते हैं | पुराणों के अनुसार चंद्रमा में च्रमृत का श्रावास है | शुक्क पन्न मे वह कला कला (श्रर्थात्‌ थोड़े थोड़े माग द्वारा) बढ़ता है | कृष्ण पत्न में उसकी संचित कला राशियाँ देवतागणु एक एक करके पी लेते हैं । अग्नि, सूय, विश्वेदेवा, वरुण, वषट्कार, इंद्र, देव पं, आज एक- श्सोदयं लावण्य का पर्य्यायी है श्रौर वह तरल श्र श्रग्राह्य है मुक्ताफलानां यासु तरलत्वमिवान्तर | प्रतिभाति यदङ्कघु तल्लावस्यसिहोच्यते | <कलः श्रोर कलाः शब्द का सानिध्य है | कं (सुखम्‌) लाति (ददाति च्ारत्तेव) इति कलम्‌ । कल कल नाद्‌ उख शब्द को कहते है जिसमे अ्ल्हाद, मनोहरता श्रोर रमणीयता तो हो परंतु श्रथ समक में न आवे । नदियों और पक्षियों की कल कल ध्वनि प्रसिद्ध




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