कला और सौन्दर्य | Kala Aur Saundrya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० कला और सौन्दय जितने प्रकार की सानव-प्रगतियाँ हो सकती हैं उतने हो प्रकार की कलाएँ भी सिल जाएँगी । विश्वात्मा ने प्रत्येक प्रकार की चेष्रा में अपनी स्फरणशी लता का परिचय देने के लिए उसे सजीवता, रम्यता, का सहज रूप दिया है । उसकी प्रगति-चेट्राओं तथा तद्रप कलज्ञाओं की. गणना करना असम्भव दै । तथापि सौन्द्यंद्त्ति के अन्वेवर्कों ने उन आधारों का स्थूल वर्गीकरण करके, जिनको लेकर मनुष्य प्रगतिशील होता दैः कलाओं का भी उपयोगी अथवा ललित, मूत्त अथवा अमूत्त, नामों से वगान॒सन्धान करते का प्रयत्न किया है । परन्तु वर्गोकस्ण मे जहो विभाजन को पद्धति रहता दे वहीं उसमें क्या एकीकरण की पद्धति मी दृश्य नहा द ( वग विभेदमयो एकता या एकतापूएं विभेद के आधार पर ही बनते ह । तव हम यह पूछते है कि च्या अन्ततः सव कलार्णे एक हो नहीं मजोवन में देखते हे कि यद्यपि अलग-अलग कलाएं अपनी अलहदगी में हो अपना अस्तित्व प्रदर्शित करती हुई प्रतीत होती हैं, तथापि क्या वे एक-दूसरे से अपना संयोग करती हुइ भी दृष्टिगोचर नहीं होतीं ? संगीत और नृत्य या काव्य और संगीत का मेल तो, खेर, लालित्य के आश्रय से आप मान लेंगे ; परन्तु क्या यह अमाननीय है कि संगीत, काव्य और नृत्य कें आनन्दास्राव के लिए सुन्दर, सुसज्जित तथा 1 ॥ य{ माडफानृसों को जगमगाहृट से सु-झालोकित मवन अथवा, फिर, चन्द्र-मशालची : के कोमलोञ्ञ्वल सोहादं से स्निग्ध लत।-न्यजन व्योमवितान की अपेत्ता मो हुआ करती है ? क्या सुभ्रों के रहने को बस्ती में या किसी ऐसे स्थान में जहाँ शेरों की दहाड़ से पलायनव॒त्त चरणों की पलायनशक्ति भी मारी गई हो नृत्य गीतादि की सम्भावना हो सकती है ? नहीं, बल्कि चृत्यगीतादि को रम्यता के रूप में प्रस्ुटित करने वाली प्रति या मनुष्य की वास्तुकला प्रकृतिकरत अथवा सनुष्यकत चित्रो से द्विशुणौकृत होना भो चाहती रहती है । इतना ही क्या, साधनां के अनसार शिल्पा या उपयोगी कला काभी.वही योगो जाता दै । अवसरोपयुक्त सुन्दर वेषभूषा को घारण कर




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