संत - साहित्य | Sant Sahitya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ६ | कोमल ममेस्थल है ! नारी-हृदय कितना अल्हड़, कितना विश्वासी होता ह ! नारी सदेव अपनी हार ही देखती है भौर इसीसे उसका हृदय सदेव कोमल तथा करुण-प्रण होता हं । नारी को सदा अपनी पराजय का ही संबल है ! वह विक जाना जानती है--गाहक उस बिके हुए सौदे को झपने घर ले जाय या कूड़े में फेंक दे। चह श्पना हृदय फला देती है, वह्‌ अपना प्राण विद्धा देती है ; “अतिथि? भले दी उस बिल हुए हृदय की छोर एक दृष्टि भी न डाले--उसपर चलने की तो बात ही क्या है ! शकुन्तला के हृदय मे एक भावी शंका उत्पन्न करके कवि नें पाठकों के हृद्य पर विषाद्‌ का एक कुहरा फैला दिया है । इस कुहरे कं उस पार प्राणेश्वर का देश हे ्ौर पता नदी कभी उसके शीश- ल में पहुँचना होगा या नहीं । और, सबसे बड़ी कसक तो यह दं कि पहुंच भी जाओ तो वहः पहचान सकेगा या नहीं ; अंगी कार करेगा या नहीं ! देवता पर चढ़ाया हुआ पुष्प अपना निवाणु दवता के चरणों से अतिरिक्त कहाँ पा सकेगा ? सवेस्व समपंण के अनन्तर झपनी आराधना की स्वीकति-अस्वीकृति में ही साधक को एक हल्को-सी शंका हो जाय--औओर शतिस्तेहः खलु पापशंकीः-- प्रमी सदा अनिष्ट की आशंका किया करता है-ऐसी झाशंका बनी रहने के कारण प्रेमी का हृदय जब दहल उठे, तो उस अल्हड कन्या का कया दोष ? प्रेममे बिधे हुए हृदय को लोक-परलोक कौ परवा करने का समय ही कहाँ है-अवकाश ही कहाँ है? रङ्कन्तला अपन प्राणः के ध्यान में डूबी हुई थी-उस समय ठुवासा क आन न झाने की सुध ही उसे कहाँ थी ? वह उस समय यदि अपने हृदय पर पत्थर सरकाकर इस कोधी अतिथि का स्वागत करने उठती, तो हम उसकी तन्मयता पर ढेसे विश्वास करते ?




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