निर्यातन | Niryatan

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Niryatan by भगवतीप्रसाद वाजपेयी - Bhagwati Prasad Vajpeyi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आँखें भऋपक जातीं । बार-बार वे आँखें घोते और चेतन बन जाने का उपक्रम करतें । फिर भी जब वश न चलता तो प्रायः वे सेठजी से यह कहकर अपने डरे पर चले त्ते कि मेरी तबियत आज ठीक नहीं है । पर डेरे पर आकर भी उन्हें चैन न मिलती । बिस्तर पर पड़े-पड़े वे करवट बदलते हए सोचने लगते--मैं भी कितना मूखे हूँ। व्यर्थही इतना परेशान होता हूँ । ठुरन्त वे आपने कमरे में रक्खी हुई बोतल का कारक खोलकर दो पेग चढ़ा जाते । बात की बात में उनकी सुद्र खिल उठती । मकान में जो लोग उनके पड़ोसी थे श्र संयोग से उस समय बेकार रहते थे, वे उनके साथ बैठकर ताश खेलने लगते; जब भूख लगती; तो बाजार से मिठाई-पूरी मँगाकर अपनी च्ुधा शन्त कर लेते । . कभी-कभी अपने साथियों को भी उसका भाग आतिथ्य रूप में मेँट कर देते । दिन भर में चालीस-पंचास पान खा लेना उनके लिए अब एक साधारण बात हो गहं | आठवें दिन जब राधाकान्त एक नाटक देखने गये, तो साथ में दुन्दू बाबू भी गये, जिनके साथ उनका दिनि मर गपशप में व्यतीत हुआ करता था । रंगशाला के भीतर नर्तकियों का उत्य देखकर टुन्नू बाबू बीच- बीच में अपनी सम्मतिं प्रकट करने लगते थे । यह ललिता वास्तव में सुन्दरी है । इसकी छनि कितनी लुभावनी है ।..-श्रौर वह रमा--उसकी कजरारी ओरल की धार कैसी प्रखर है । बाबू देखो, ये दोनों ही बस... दो-चार मिनट तक तो राघा बाबू सुनते रहे, श्नन्त मे जब आसद्य हो उठा तो यकायक--'“चुप रहिये, राधा बाबू जोर से बोल उठे । उनके स्वर में राज आतंक की स्पष्ट झलक थी | श्रच्छा-्रच्छा, समभ लिया बाबू + कहते हुए दुन्नू बाबू चुप हो गये | परन्ठ थोड़ी देर बाद एक नतकी ने गाया--तोरे मन मेँ बर्सुमी हो साजना ।2 इन्त बाबर से फिर नहीं रहा गया। बोले- वाह राजा। 4




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