मुहावरा मीमांसा | Muhavra Mimansa
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
467
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ७ )
प्रुत प्रवन्ध में न तो मान बदतिहास को सो करना श्रवा उत्पर् बुध लिखना ही हमार
घ्येय है, श्रौर न मुद्दावरों के इतिरृत्तासक इतिदाप् का प्रह ओर पफलन ¦ प्रयस्य फौ भूमिक के
इस अरति पवुवित श्रौर सीमित क्षे मे विवास शरौर् रध की षटि से पुदावरो वौ प्रकृति श्रीर्
प्रदत्ति पर हमारे श्रति सत्तेप में थोड़ा-सा प्रकाश डालने से यदि जिशासु अन्वेपकों के मन में
मुद्दावरों का विस्तृत इतिहास सोजने की थोडी-वहुत भी प्रेरणा उत्पन हो जाती है, तो इम इसे
झपने काय वी सिद्धि ही मानेंगे !
किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा राप्ट्र के क्रमिक विका श्रौर ददि का विवरण हौ इतिहा
कहलाता है । श्रतएव प्रुद्दावरों का इतिहास जानने के लिए हमें उनके कमिक विकास श्रौर धृद्धि
शान वा होना श्रावश्यंक है! “सुहावरे हो”, जैता किसी विद्वान में कहा है, भाषा दी नौंव के
पत्थर हैं, जिनपर उसका भव्य भवन भाजतक रुका हुआ है शरीर मुहावरे ही उसकी दट-फूट को
ठीक करते हुए गर्ा, सर्दा श्रौर बरसात के प्रकोप से झवतक उसकी रक्षा बरते चले शा रहे हैं,
सहेप में ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं ।” भाषा के विकाप्त और उद्धि से इसलिए सृदावरो फे
विकास श्रौर दद्धि का श्र्ययन करने में काफी सहायता मिल सकती है ।
मैललिनोवस्कौ ने द्रोवरियपुढ (799१० ) द्वीप-निवासी _ '्रादिवातियों की भाषा का
मृष गहरे फे सयं अध्ययन करके जो अनुभव प्राप्त किया रै, उपप भाषा फे मूल स्प ख वहत
मु पता चल जाता दै1 इसी श्राधार पर स्टु्नट चेज ने लिपा टम कमी वमी सोचते ट
किदो फे दारा. विचारों कौ श्रमिव्यक्ति ही भापाकाश्रादि रूपहै। मह मानने पर कि
मेलिनौवस्की ने जो प्रयोग किये हैं, वे ठीक हैं, ऐसा लगता है कि विपरीत क्रम दी सत्य के श्रघिक
निकट है। मापा को शृद्धि के अ्नुलार..छसपर, विचार_ या भावना_ का उतना प्रभाव नहीं पड़ा है,
धवला विदार मर भाषा कै स्वीकृत दॉचे क विचार पर भाषा के स्वीकृत ढांचे का। श्रधिफ उन्नत शान श्रौर कल्पनाशं में श्रादि
जगली जातियों के सरवों श्र स्वत सिद्ध कत्पनाओओं आदि ढी गहरी दाप है] श्रव मी यद्
विश्वास किया जाता है कि शब्द में जादू का-सा असर रहता है. ।” किसी भापा के मुद्दावरों को
देने से तो यह बात छोर भी स्पप्ट हो जाती है कि उनमें श्रादिम जातियों के रहन-सहन श्री
विश्वास एव बरपनाश्ं की गहरी छाप रहती है।
भाषा का, चू कि ऐसा कोई इतिहाप्त अभी नहीं लिया गया है, जिसमें उसके आदि रूप से लेकर
श्रवतक का ऐतिहाप्तिक दृष्टि से, यथार्थ विवरण श्रौर पूरा ब्णन मिल सके । इसलिए
मेिनो स्क इत्यादि जिन विद्वानों ने देश-देशान्तर में बिसरी हुई श्रादिम जातियों की भापषाझों
या श्रध्ययन करके भाषा के झादि रुप के सम्बन्ध में जो खोनें की हैं, उन्हीं के शाधघार पर भाषा
वी उत्पत्ति के सिद्धान्त स्थिर किये जा सकते हैं, रौर पथि गये हैं | भूमिदा के इस अति रूदुचित
क्षेत्र मं चू कि भाषा या मुद्दायरों के इतिहाप्त वी शोर केवल संकेत हो फ्या जा सक्ता दे, इसलिए
अब हम सिद्धान्तों की मीमाता न करके सीधे श्रपने विपय पर श्रा जाते हैं |
विद से पढिलि भापा का क्या रूप था, इसका वोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता । हां,
ऊग्वेद की व्यवस्थित और सुमस्कृत भाषा! को देखने से इतना श्रवश्य कद्दा जा सकता है कि भाषा
का जन्म ऋग्वेद से बहुत पहले दो चुका था। स्टुअर्ट चेप ने जैसा लिसा है कि “मापा के स्वीकृत
ढाँचों का विचारों _पर प्रभाव पढ़ता दे”, इससे तो यह स्पप्ट हो जाता दै कि सुद्दावरों का जन
उस समय दो चुका था। भाषा के स्वोइठ ढाँचे' का झय मुद्दावरा ही हो सकता दै। इसके
झत्तिरित्ता फिर जादू का सा प्रभाव डालने को शक्ति मी तो मुद्दाबरों में हो होती है, सम प्ररार के
साधारण प्रयोगों में नहीं । उस समय की भापषा के प्रत्यक्ष उदाहरण भले ही अप्राप्य हों, क्न्वि
उस समय भी लोग श्रपने भावों को एव-दूसरे पर व्यक्त करते थे, उनकी भी वोई मापा यी, दषम
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