शिक्षा | Shiksha

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Shiksha  by डॉ नारायणदास खन्ना - Dr. Narayandas Khanna

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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में मैंने सुना कि ' तिमोफ़ेइका ' को प्स्कोव जेल में दो वर्षों के लिए एक ऐसी काल-कोठरी में डाल दिया गया था जहां खिड़की तक न थी । बाद में मेरी उसकी मुलाक़ात कभी न हुई। उसका कुलनाम था यवोस्कया। उन दिनों जाड़े के मौसम में में दर्जे में बैठी बेठी छोटे छोटे मकानों के चित्र बनाया करती श्रौर उनपर स्कूल लिख कर एक साइनबोड-सा लटका दिया करती | इस प्रकार में गांवों की श्रध्यापिका बनने के स्वप्न देखा करती । उन दिनों के बाद से में हमेशा ही गांवों के स्कूलों में भ्रौर गांवों के बच्चों को पढ़ाने में दिलचस्पी लेने लगी । पहली माचं १८८१ ्रांतिकारियों के प्रति में सहानुभूति केसे न प्रकट करती ! मुझे पहली माचें १८८१ की वह शाम श्रच्छी तरह याद है जब ' नरोदनया वोल्या' के सदस्यों ने श्रलेक्सान्द्र द्वितीय की हत्या की थी। उस दिन, पहले मेरे कुछ संबंधी प्राये थे। वे डरे हुए थे। उनके मुंह से बोल तक न फूट रहे थे। इसके बाद मेरे पिता का एक पुराना सहपाठी, जो एकं भ्रफ़सर था, हांफता हुम्रा आ्राया श्रौर हत्या का सारा ब्योरा हमें सुना डाला , कैसे गाड़ी उड़ा दी गई, इत्यादि। “हाथ पर बांधने वाली पट्टी के लिए मेने थोड़ा क्रेप खरीद लिया है,” हमें क्रेप दिखाते हुए वह बोला । मुझे याद है कि मुझे यह देख कर बड़ा प्रादचयं हुश्रा थाकि वह व्यक्ति जार की मृत्यु पर शोकसूचक काला कपड़ा बांधने का कितना इच्छक था। यह वही जार था जिसकी उसने हमेशा श्रालोचना की थी। यह श्रफ़सर निहायत कंजूस था श्रौर इसी लिए मैने भी सोचा, “श्रगर इसने त्रप खरीदने में पैसा ख़चें किया है तो जरूर ही वह सच कह रहा होगा । ” उस रात मुझे ज़रा भी नींद न श्राई। मँ सोच रही थी, “भ्रव जार मर चुका है तो हर चीज बदलेगी। लोग श्राजाद होगे ।” १४




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