कला और आधुनिक प्रवृत्तियाँ | Kala Or Adhunik Pravartiya
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
214
श्रेणी :
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No Information available about रामचन्द्र शुक्ल - Ramchandar Shukla
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)एक प्रदन ७
इससे भ्रागे जव हम वठते ह तो सम्य समाज मे धारणा यह होती है किकलाका
काये केवल वस्तु-चित्रण ही नही है, बल्कि कला के माध्यम से हम श्रपनी भावनाओ
तथा विचारो की भी अभिव्यक्ति कर सकते है । चित्र ऐसा हो जो देखनेवाल के मन
पर प्रभाव डाले, विचारों में परिवर्तन करे, नये विचार दे या कहिए कोई नव सन्देश
यक्त करे-चित्र को वोलना चाहिए । वात जँच गयी, जम गयी श्रौर सम्य दिक्षित
समाज ने इसी को-चित्र की कला समझा । वस्तु से थोडा ऊपर उठकर भावना, विचार
या सन्देश को प्रधानता मिली । पर यह सब वस्तु-चित्रण के द्वारा होना चाहिए, इसमें
सन्देह न था, झास्था वन गयी यद्यपि वस्तु से_श्रधिक श्रधानता. अभिव्यक्ति को प्राप्त हुई ।
साथ-साथ भाव यह भी वना रहा कि चित्र सुन्दर होना चाहिए । भ्र्थात् वस्तु का चित्रण
हो, भावना, विचार तथा सन्देश व्यक्त हो, और सुन्दरता हो । कला भ्रागे वदी । भ्रजन्ता,
मुगल, राभप्रुत-सभी भारतीय प्राचीन कला-रोलियो में इस भाव का समावेश था ।
आधुनिक कलाकारों ने पुन इन भावों को दुढ किया । समाज ने इसे समझने का
प्रयत्न किया ।
फिर झ्राधुनिक कला ने वस्तु-चित्रण के स्थान पर यह क्या किया ? ऐसे चित्र वनते है
जिनमें यह मालूम ही नही पडता कि चित्र किस वस्तु का है, क्या भावना, विचारया
सन्देश व्यक्त होता है । इन झाघुनिक सूक्ष्म चित्रो को देखकर केवल जटिलता का वोव
होता है। चित्रकारो का पागलपन या विकृति नज़र श्राती है । यूरोप, अमेरिका,
इगलैण्ड - सभी देशो के कलाकार पागल हो गये है, विकृत हो गये है, कि वहाँ मुश्किल से
श्रव कोई एेसा नया चित्र दिखाई पड़ता है जिसमें किसी वस्तु का चित्रण हो, क्या भावना
या सन्देश है इसका पता लगे । सुन्दरता तो नज़र ही नहीं श्राती । इन चित्रकारो को
पागल समझनेवाले वहाँ काफी है, पर इसकी सचाई भारतवासियो को सात समुद्र पार से
ही मालूम हो गयी है । हम विज्ञान में यूरोप से भले पीछे हो, पर सचाई तो हम ही दूसरों
को सिखा सकते है । हमें इस पर गवं है । इसका हमें दावा है । श्रफसोस तो इस बात
का है कि हमारे कलाकार स्वय पागल हुए जा रहे है इन पादचात्य कलाकारो को
देखकर । क्या हमारे कलाकारो की वुद्धि भ्रष्ट हो गयी है ? क्या भ्राजादी प्राप्त करने के
वाद यही कार्य वाकी रह गमा है * पिछले वर्षों दिल्ली में 'ललित कला प्रकादमी की
प्रदर्धनियों में सुक्म कला की वाढ़-सी श्रा गयी । रोके न रुकी । यहाँ तक कि प्रददोनी के
सूचीपत्रो भे दिये चित्रो तथा मान्यता प्राप्त चित्रो मेँ केवल सुक्ष्म चित्र ही दिखाई पडे ।
क्या यह चिन्ता का कारण नही ? हमारे विद्वान् कला-रसिक, कला-इतिहासन्ञ, कला-
पारखी इसे क्यो नही रोक पाते ?
इसीलिए कि क्रान्ति रोके से नही शकती, तूफान थामे नही थमता । तो क्या होगा ?
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