रेवातट | Revatat
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
51 MB
कुल पष्ठ :
475
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about विपिन बिहारी त्रिवेदी - Vipin Bihari Trivedi
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( दे. )
मारा नहीं गया; केवल वंदी बना लिया गया था श्रौर इसीसे उसके नाम का
उपयोग हयो सका | अनुमान दै कि याल्दुज़ के ग़ज़नी वाले सिक्का की भाँति
पे सिक्केभी गोरी की मृत्यु के बाद उसके सम्मानाथ ढाले गये होंगे ।
परमेश्वरीलाल प्न ने (ना० प्र० प०; वर्ष ५७; श्र के २-३; सं० २००६ वि०,
पु० २७०५३ मे) लिख है कि इस प्रकार का सिक्का केवल एक ही कात् हे
और यह टकसाल के श्रधिकारियों की मूल से छप गया दै सतु देवी सिंह
की यह कल्पना कि प्रथ्वीराज तराई के युद्ध में बंदी बना लिये गये थे आराह्म
नहीं जान पढ़ती । 'सिका एक ही है और मूलसे छप गया दे यह प्रमाण
संगत नहीं प्रतीत होतां । देवीसिंह का निर्णय रासो की बात का प्रतिपादन
करता है कि तराई' वाले युद्ध में प्रथ्वीराज बंदी बनायें गये थे । रासो के
शरनुसार मोरी को चौदह वार वंदी बनाने वाले प्रथ्वीराज उससे उन्नीसवें युद्ध
में स्वयं वंदी हुए और गजनी मे चंद की सहायता से शब्दवेधौ बाण द्वारा
सलतान को उसके दरबार म मार कर स्वयं श्रात्मघात करके मृत्यु को प्राप्त
हुए । ध्रथ्वीराज प्रव॑धः मेँ वरति दै कि युलतान को एं बार ७ बद्वा
बद्धवा सुक्रः, करदश्च कृतः? परथ्वीराज श्म'तिम युद्ध म श्रपने मतर प्रतापसिंद
के घेड़यंत्र के कारण बंदी किये गये श्र पुन: उसी के प्रड़यंत्र से उन्होंने
सुलतान की लौह-मूर्ति पर बाण मारा जिसके फलस्वरूप उन्हें पत्थरों से भरे
गढ़े में ढकेल कर मार डाला गया (पुरातन प्रबंध संग्रह, ह०. ८६-७, |
साहित्यिक भावनाओं से आदत्त रासो के वृत्तांत में सत्य का अंश श्वश्य हा
गुभ्फित दै, एेसा अनुमान करना श्रतुचित न होगा |
सन् १६३६ ३० मे बम्बई से एक सिह गर्जन हुश्रा (पुरातन प्रबंध संग्रह,
प्रास्ताविक वक्तव्य, प्र० ८-१०) । जैन-अंथागारों में सुरक्षित ए्थ्वीराज श्रौर
जयचंद्र के संस्कृत प्रबंधों में श्राये चंद बलहिउ (चंद वरदाई) के श्रपभ्रश
'छुंदों के आधार पर जिनमें से तीन सभा बालें रासो में किंचित् विकृत रूप
म बतंमान दै, विश्वविख्यात वयोन्रद्ध साहित्यकार मुनिराज जिनविजय ने
घोषणा की है कि प्रथ्वीराज के कवि चंद वरदाई ने श्रपनी मूल रचना
झपग्रंश में की थी । इस गर्जन से स्तम्मित होकर चंद चरदाई तक के
स्तित्व को श्रस्वीकार कर देने वाले इतिहासकार चुप हो गये, शुभ-सुम,
खोये हए से, किसी नवीन तर्क की ्राशा में शिलालेखों श्रौर ताम्रपत्रों की
जाँच में संलगन । श़ैरियत ही हुई कि शिलालेख मिल गये, नहीं तो कौन
जानता है प्रथ्वीराज, जयचन्द्र और भीमदेव का व्यक्तित्व भी इन इतिहासकारों
की प्रौढ़ लेखनियों नें ख़तरे में डाल दिया होता । ये कभी कभी भूल जाते हैं
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