समाधितन्त्र प्रवचन भाग - 3 | Samadhi Tantra Pravachan Bhag - 3

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Samadhi Tantra Pravachan Bhag - 3  by सहजानन्द महाराज - Sahjanand Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्लोक ' ४९ १३ बादरमें सुख मालूम होता हैं छोर अन्तरम बहुत ही रोष व -दुःख मालूर, होता दहै । ः 0 प्रथमाभ्याखमे श्रान्तरिक अरिथिरता-- जंसे जिसे पानीसे डुबकी लगानेका अभ्यास नहीं है; पानीमें घुसे ही घुसे बहुत दूर तक झन्द्र ही अन्दर सैर कर निकल जानेका जिन्हें ठभ्यास नहीं, है ऐसे पुरुषको जवर- दरनी पानीसे डुनकी लगवायी जाती हे तो बह बाहर रठना चाहता है | उसे पानीमे कलश मालूम होता-हैं शोर वह वादरमे.'पना सिर निकालते मँ सुख श्रलुमव करता है। श्रौर जिसने झभ्यास कर लिया है वह तो खुशी ष्ुशी अन्दर-अन्दर तेरा कर्ता दे) ऐसे ही समझो कि जिसने इस, द्मामावनाका श्रमी-अभी अभ्यास प्रारम्भ किया है ऐसे पुरुषकों वाहरमें सुख मालूम होता है शोर शपने 'ापसे दुख मालूम होता है। पद्मासना वटो, देखो कमर चिल्कुल सीधी करो; छांखें चद करो; भीतर अपना चित्त लगावो । अरे बरता है कोशिश पर दिल चाहता है कि छुछ देख तो लूँ; क्‍या है सामने ? चित्त चाहता है चौर वैभव सम्पदामे यह्‌ उपयोग दौड़ जाता है। भीवर सुन्नसा होचर ङ मालूम करना चाहता है तो एक घबड़ाहटसी मालूम होती है । जिसने इस आत्मभावनाका छभ्यास झभी अभी ही प्रारम्भ किया है उसे धाहर में: तो सुख लगता है शोर छात्मरघख्पकी भावनमें दुःख अतीत होता है । किन्तु जिसने ओात्म भावना को खूब किया हैं; झात्मतृरंबकें ध्यानके जो झभ्यासी हैं उनको वाहरमे तो क्लेश मालूम होता हे '्रोर अपने झापके शात्मामे सुख मालूम होता है । ज्ञानइध्रिमें झध्यास्मरमशकी सुगमत।”-- मैया ! छाज्ञानके समान विपत्ति भोर घुछ नहीं है | लोकमें भी यह घन वैभव सभ्पदा कहे झुखकी चात नहीं है । फदाचित्‌ू यह कट्दो कि पचासों आादमियोंमे ुछ इजत तो हो जाती है; अरे बे पचास भी विनाशीक हैं; मायारूप हैं; छ/पचित्र हैं छोर उनमें चाहने वाशी इज्जत भी मायामयी है; विनाशीक छापचित्र है । कौनसा लाभ हुआ ? धर्मकी 'ोर इष्टि नहीं है तो लाखों छोर करोड़ोंको. सम्पदा भी मेरे पतनके लिए है श्लोर--वतंमानमें भी मेरा पतन है चोर धर्म- दृष्टि दे तो चाहे भीख मांग क्र भी पेट भ्र) धघर्मचष्टि होने से वह्‌ आत्मा पवित्र है, शांति भोर. संतोपका पात्र १1 यो जिन्होंने आत्मत्तखषो जानकर इसका अभ्यास कर लिया है' उन पुरुपोंकों बाहापदार्थोमिं अपने चितकों रुततानेसें: कलेश, मालूम: होता है-. और अपने श्ापके-रबसूपमें, जाननरूपके उपायसे बसे रह नेमे आनन्द मालूस त्ता है । निसपद्रव स्थानसे बादिर गमनकी निरूसुकता- नेसे सावनके




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