आत्मानुशासन प्रवचन भाग - 5 | Aatmanushasan Pravachan Bhag - 5

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Aatmanushasan Pravachan Bhag - 5  by महावीर प्रसाद जैन - Mahaveer Prasad Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गाथा १२३ ११ होता दे 1 र्थी इसमे अज्ञान चव उत्पन्स नहीं हो रहा है । श्रश्ुभोपयोग का स्याग करना, शपो प्रयोगका श्रालम्बन केना, शुद्धौपयोगका लक्ष्य रखना इौर शुभ्रोपयोगसे भी लियुत्त होना यह सब थात्मद्वितिकी सिद्धि करने की सामश्यं इस न्ञानकलावान पुरुषमें प्रकट हो जाती है । हम सबका एक ज्ञान ही रक्षक है । ज्ञानगुएको गम्भीरता दे खिये--प ज्ञानगुण) विशेषता, यह ज्ञान कितना गम्भीर शोर च्दार है? इस ज्ञानशुणके किप्टी भी परिशुमनके कारण जीबके कर्मबंध नहीं होता । थोड़ा ज्ञान जिसे है, बहुतसा ज्ञान जिसका ढक गया है। एकेन्द्रिय दोइत्ट्रियि झादिक जिस ओक जितना ज्ञान प्रकट हा है बह सव ज्ञान, सव जो का वध नरी करता । ज्ञानकी किसी भी प्रकारकी अवस्था संसारम नदीं सानी, किन्तु श्रद्धा और चासि इनका जौ विकार है, मिथ्यात्व हो गया यह श्रद्धाका विकार है । कषायें हो गयीं यह चारिन्रका विकार है। इस श्रद्धा और चारित्रके विकार ससारभे जीवको रुलाते हैं। ज्ञान कितना भी प्रकट हो; कितला भी ढक हो, ज्ञाततकी कोई स्थिति इस जीचको बध सहीं करानी । जब की ज्ञार्की कमीकी हालत में था कुज्ञानकी रिथितिमें उीवक्ता कमंबन्ध होता दै वह मिथ्यात्वके कारण कर्मबंध हो रद्द है; ज्ञानके कारण नहीं दो रहा हैं । द्वान तो स्वभाषसे टी ज्ञानरूप हैं। बह न सम्यक्‌ होता 'सौर न मिथ्या होता) पर मिश्यात्वके उदयते ज्ञान भी पिथ्यास्व फहलाना दै श्नौर सम्यक्टके प्रकट होने से क्वान भी सम्यक्‌ हो जाता दै | जञानालम्बनफा करतव्य--भेया 1 जो ज्ञान एतना गन्भीर है उस ज्ञासका प्मालम्बत ज्ञे कोई, तो उसे सच्चा शरण मिलता दै । ज्ञनक। शरण फभी घोखा नहीं दे सकता | हम 'माप सुखी होनेके लिए वही वैभचका शरण पाना चाहते दै, दृ टना चाहते दहै, पर इन बाह्यपदार्थाकी शरण हमे अना- छुल लद्दीं कर सकनी | हम श्रपनेदही इस शुद्ध सहज ज्ञानका शरण हें, चस्तुसह्टपको जानकर इसही परम स्वभावरूण परी प्रतीति करे शौर इन बिमावोसे दुर होकर शाश्वत आनन्द पाये, अपनी शरण क्ते, अपने ज्ञानकी रोर मुके ! इस ही हमारा सर्वं अभ्युदय है । | विधूतत्तमसो सगस्तपःश्र तनिवन्धन' । स्ध्याराग इबाक्य जन्तोरभ्युदयाय सः ॥१२३॥ शुभरागका ब्रभ्युदयम सहयोग--जिस जीवका अज्ञान झधकार दूर हो गया है उस जीयफा कभी कुछ काल तक राग उठता है तो तपस्यामें; ज्ञालमें सयममे इन शुभकार्योमें राग होता है। सो उस झ्वानी पुरुषका यह राग उसके उत्थानके लिए है । जैसे कि सुबहके समयमें जी प्रभात्कालीन लालिमा




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