हिन्दी की पत्र - पत्रिकाएँ | Hindi Ki Patra Patrikaen

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१. सम्पादक को असन्दौ ` ं ढडा० चासुदेवशरण श्चग्रवाल, एम० ए०, पी० एच० डी ० वीन व्यास गदियों का नवावतार सस्पाद्कों की श्यासन्दी में हुआ ग्रा ड) जान के गूढ़ श्र्थो का लोकदित के लिये जन-घमुदाय में वितरण करने बाले प्राचीन ठ्यासो का उत्तराधिकार अवौचीन सम्पादको के हिस्से मे श्राया दै । व्यासं ने वेदों की समाधि-भाषा का विस्तार और व्याख्यान करके उस सरस्वती को लोक के कंठ तक पहुँचाया ! आज विवेक-शील सस्पादकों को भी नये भारतवर्षं से जान विज्ञान के लिये कायै सम्पन्न करना है । लोक-जीवन के बहुसुखी पक्षों का अध्ययन करके उसके लिये जो कुछ भी मूल्यवान, ` सवभूत हितकारी ओर कल्याण-प्रद्‌ हो सकता दै उसे लोक के दृष्टि पथ में लाते का कायं सम्पादको का ही हैं । सम्पादक की दृष्टि अपनी माठ-भूमि के भौतिक खूप करो गरुड की चल्ुष्मता से देखती है! भूमि पर जो भी जन्म लेकर वद्वा है उस सवके भ्रति सम्पादक को प्रेम और रुचि होनी चाहिये । प्रथ्वी के हिमगिरि ओर नदिर्योँ सस्य-सस्पत्ति, और ब्रक्ष वनस्पति, मणि हिरण्य श्औौर खनिज द्रव्य, पशु- पक्षी एवं ज॑लचर, आकाश में संचित होने वाले मेव अर झन्तरिक्ष में यहने वाले वायु, समुद्र के अगाघ नल मे संचार करने वाले मुक्ता शुक्ति शरोर तिर्भिगल सत्स्य--सब राष्ट्र के जीवन के अभिन्न अंग हैं नौर सवके विषय मे ही सस्पादक को लोक शिक्षण का कार्य करना चाहिए । समुद्र की तलहटी में सोई हुई सीपियाँ अपनी सुक्ता राशि से राष्ट्र की नवयुवतियों के शरीर को सजाती ह, अतएव उनके दित के साथ भी दमारे सज्जल का घनिए सम्बन्ध दहै 1 जागरूक रष्ट के सम्पादक को उनके विषय में भी सावधान और दृत्त रुचि होने की श्रावश्यकता है । प्रवाल और मक्ताओं




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