षटपाहुड ग्रन्थ | Shatpahudgranth

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Shatpahudgranth by कुन्दकुन्द - Kundkund

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बाबू सूरजभानुजी वकील - Babu Surajbhanu jee Vakil

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(९ ) वश््रादि वाद्य परिग्रह रहित भाव चारित्र द्यून्य भी बन्दने योग्य नही ह, दानो समान दँ इन मे का भी सयमी नदीं हे । भावाथ-- यदि कोई अधमीँ पुरुष नगा हो जावै तो वह बन्दने योग्य नहीं है और जिस का संयम नहीं है बह तो बन्दने योग्य दै ही नहीं । णवि देहो वॉदेज्इ णविय कुलो णविय जाइ संजुतो । को वंदमि गुणदीणों णहु सबणों णेयसावओ होइ ॥र७॥ नापि देहो वन्यते नापिच ककं नापिच जाति संयुक्तम्‌ । कंवन्दे गुणहीनम्‌ नेव श्रवणो नैव श्रावको मवति ॥ अथ- न देह को बन्दना की जाती है नकुल को न जाति को, गुण हन मे किम को बन्दना करै, क्योकि गुण हीन नतो सुनि है ओर न श्रावकः ई । वदामि तव सापण्णा सीटेच गुणंच वंभ चरंच। सिद्धगमणेच तें सम्मत्तेण सुद्ध भावेण ॥२८॥ नन्देनपः पमापन्नाम्‌ शीटच गुणं ब्रह्मच । चिद्ध गमनंच तेषाम्‌ सम्यक्त्वेन शद्ध मावेन ॥ अथ--मैं उनको रुचि सहित झुद्ध भावों से बन्दना करता हूं ज्ञा पूर्ण तप करते हैं; में उनके दील को गुण को और उनकी सिद्ध गति का भी बन्दना करता हू चउसद्टिचपरमदहिओ चउर्तीसहि अडसएहि सजुत्तो । अणवार वहु सत्ताहि ओ कम्पक्खय कारण णिपित्तो ॥२९॥ चतुः षण्टि चमर सहितः चतु्विशदतिशयेः संयुक्तः । क © क क अनवरतवहुसत्वहितः कम्मसयकारण निमित्तम्‌ ॥ अथ- जो यौसट ६४५ चमरो सहित, चोतीम ३५ अतिकाय सयुक्त निरन्तर बहुत प्राणियो के हितकारी ओर कर्मो के क्षय होने का कारण ह 1 ”




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