विश्वामित्र और दो भाव-नाटक | Vishavamitra Aur Do Bhav-Natak

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Vishavamitra Aur Do Bhav-Natak by उदयशंकर भट्ट - Udayshankar Bhatt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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1 मेनका-- चिश्थासित्र क्यों श्रम यह फलद्दीन कर रही है सखी ! तेरे बश का नहीं समाधि-त्याग तक ! मुझे नहीं इससे है कोई हेष सखि, और असंख्यों तापस करते तप यहाँ किन्तु मेनका केवल इस ऋषि को यहीं वश कर दिखला देंगी, नारी कौन है ! नारी श्राण-विद्दीन चेतना से रहित एक भावना-पुज, पराई आस है। जो साधन है जग सें मानव सौख्य की सुखदीना है स्वयं, अपर का सुख सदा | चह विलास-स्वच्छन्द पुरुष के प्राण की मदिरा, जिसको स्वयं नशा होता नदीं । ओसोकेदी लिए हदय है, बुद्धि दै मन है, प्राण, शरीर, कर्म है, धर्म हे। ह समग्र यह्‌ शिथिल विश्व का रूप यह और विधाता के प्रमाद का फल यही | हों; नहीं, यह कैसे कहती हो सखी, [ १६ |




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