गांधीवाद -समाजवाद | Gandhiwad Samajwad

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हरिभाऊ उपाध्याय का जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन के भवरासा में सन १८९२ ई० में हुआ।

विश्वविद्यालयीन शिक्षा अन्यतम न होते हुए भी साहित्यसर्जना की प्रतिभा जन्मजात थी और इनके सार्वजनिक जीवन का आरंभ "औदुंबर" मासिक पत्र के प्रकाशन के माध्यम से साहित्यसेवा द्वारा ही हुआ। सन्‌ १९११ में पढ़ाई के साथ इन्होंने इस पत्र का संपादन भी किया। सन्‌ १९१५ में वे पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आए और "सरस्वती' में काम किया। इसके बाद श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के "प्रताप", "हिंदी नवजीवन", "प्रभा", आदि के संपादन में योगदान किया। सन्‌ १९२२ में स्वयं "मालव मयूर" नामक पत्र प्रकाशित करने की योजना बनाई किंतु पत्र अध

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ड राधीचाद : समाजवाद टि से श्रपने पास रखे, श्रथवा किन शतो पर उसे उनके पास रहने दिया जाय ? गांधीजी कहते हैं, कोई मी सम्पत्ति किंसरी पुकः व्यक्ति के अधिकार में हो या ध्रनेक व्यक्तियों से वने किसी मण्डल के अधिकार में हो, और वहं श्रधिकार उन्होंने उस समय के कायदे के अनुसार पाया हो, या गेरकानूनी तौर पर पाया हो, लेकिन वे उसे अपने पास श्रपने निजी उपयोग के लिए नहीं, बल्कि समाज की श्रोर से समाज के उपयोग के लिए ही रख सकते हैं, अर्थात्‌ उन्हें श्रौर दूसरों को समकना चाहिये कि वे उस सम्पत्ति के 'ट्रस्टी” या संरक्तक हैं । इस “ट्रस्टी” शब्द के कारण कुं गलतफहमी पदा हो ग है । इसकी भी चजह तो यह है कि अभी तक लोग इस वात को समने के आदी नहीं हुए हैं, कि गांधीजी जब कुछ कहते हैं, तो, जो छुड़ कहते हैं, उसके पूरे-पूरे श्रर्थ पर जोर देकर ही कहते हैं । गांधीजी के शब्दों को भी राजनीति के सुसहियां और वक्‍ताओं की तरह समने की भूल को जाती है । अंग्रेज रालनीतिज्ञों ने कटे वार कहा हैं कि हिन्दुस्तान में श्रिटिश सरकार का अस्तित्व . भारतीय जनता के कल्याण के लिए श्रौर उसके ट्रस्टी के रूप में है । लेकिन हमें अनुभव तो. यह हु है कि इस भापा के ध्रनुखार ˆ ्राचरण करने की उनकी रत्ती मर भी नीग्रत नहीं हैं । श्रतएव अब हम समक चुके हैं कि इस प्रकार . की भाषा का प्रयोग करके निरे दम्भ. और भटेती-भरें शब्दों द्वारा हमें भुलावे में डालने की ही उनकी नीयत होती है । गांधीजी पर भी यह शक किया जाता दे कि सम्पत्तिवालों का पक्ष लेने के लिए ही वे इस प्रकार की दम्भ्णं भटेती किया करते हैं । पहले एक वार ऐसा हो भी . चुका है । गोलमेंन परिपद्‌ में जब गांधीजी ने यह घोपित किया कि हरिं जना को हिन्दु से प्रथक्‌ करने के प्रयत्न का चह॒ प्रशापण से विरोध करगे, तो उनके इन शब्दो प्र किसी ने वहत ध्यान नहीं दिया । वहुर्तों नेतो यही समफा कियद सिर्फ वक्‍्तृप्वकला का एक श्रलंकार,है। फलत: उन्हें अपने शब्दों को सत्य सिद्ध करने की श्रावश्यकत्ता हुई । इसी प्रकार जय दे कहते हूं कि जिनके पास सम्पचि है, वें उसके मालिक नहीं, 1




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