प्रच्छन्न महासमर भाग - 6 | Prachchhann Mahasamar Bhag - 6
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
22 MB
कुल पष्ठ :
615
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand) यह कल ही पहुँचा है।” शकुनि ने बताया, “अपने साथ कुछ गांधार वस्त्र
लाया है | महाराज ने भिजवाए हे । मेने सोचा कदाचित् वे तुम्हारी रुचि के हो |
इसलिए धी गठरी ही यहो ले आया |“ उसने काशिका की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा
नहीं की, सीधे अपने सेवक से दोला, “खोल गठरी । विज्जू के समान मेरा मुख
क्या ताक रहा है ।”
“पर ये वस्त्र तो महारानी ने अपनी पुत्रवधू के लिए भेजे हैं युवराज 1”
सेवक कुछ संकुचित भाव से बोला. साधारण उत्तरीय नहीं हे ! ऊनी स्कधावरण
है, रुरु मृगो के कोमल रोमों से बुने हुए ।“
“जानता हूँ शकुनि ने कुष उत्तेजना दिखाई, “साधारण उत्तरीय होते,
तो मँ उन्हें हस्तिनापुर की युवराज्ञी को भेट करता ? मूर्ख । युवराज्ञी के वस्त्र
सदा ही असाधारण होते है | प्रत्येक असाधारण वस्त्र पर युवराज्ञी का ही प्रथम
अधिकार है!”
“पर महारानी ने तो ये स्कधावरण अपनी पुत्रवधू के लिए भेजे हैं ।” सेवक
पुन. बोला।
शकुनि ने अइृहास किया, “उन्होंने अपनी पुत्रवधू के लिए भेजे है, तो मैं
भी तो अपनी पुत्रवधू को ही दे रहा हूँ!”
शकुनि ने जैसे झपटकर, उसके हाथ से वह गठरी ले ली; और उसे खोल
कर सारे वस्त्र फैला दिए | वह जैसे एक-एक वस्त्र को उलटता-पलटता रहा।
फिर उसने काशिका की ओर देखा, “तुम्हें इसमें जो भी प्रिय लगे, उठा लो पुत्रि 1”
वह क्षण भर रुका और पुनः बोला, “प्रिय लगने का क्या है। लो, तुम ये सारे
वस्त्र ही रख लो |”
उसने गठरी को पुन: लपेटना आरभ कर दिया था।
“नहीं । नहीं ॥ मातुल, यह आप क्या कर रहे है।” काशिका न केवल
आगे बढ आई, वरन् उसने अपने हाथ फेलाकर शकुनि को गठरी बोधने से रोक
दिया, “मातामही ने अपने जिस स्नेह के साथ ये वस्त्र मातुला के लिए भेजे है,
उसे देखते हुए तो मुझे इनमे से एक भी वस्त्र स्वीकार नहीं करना चाहिए।
“नहीं पुत्रि | ऐसी बात ...””
“पर मे आपके आग्रह को अस्वीकार नही कर सकती |“ काशिका ने शकुनि
को वाक्यके मध्यमे दही रोक दिया, “आप स्वेच्छा से इसमे से एक स्कधावरण
मुझे दे दे। मै उसे आपके प्रेम का प्रसाद समझकर अपने सिर माथे पर ग्रहण
करूँगी |
शकुनि की आँखो में जैसे कृतज्ञता के अश्रु आ गए, “तुम धन्य हो पुत्रि !”
उसने बारी-बारी सारे वस्त्र को पुनः उलटा-पलटा, ओर एक स्कधावरण
उठा लिया, “यह लो | इसे ग्रहण करो । यह गंघार की शीत ऋतु मे भी व्यक्ति
18// महासमर-6
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