कबीरवचनामृत | Kabiiravachanamrita

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Kabiiravachanamrita by ओंकारनाथ मिश्र - Onkarnath Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(ও) कबीर महिदी कर घालिआ, आपु पिसाइ पीसाइ । ते सह बात न पूली, कबहु न लाई पाई ।। ६५॥ कषीर जिह दर आवत जाति अहु, हटके नाही कोह । सो दर कैसे खोड, जो दरू एेसा होई ॥ ६६ ॥ केवीर इवा था पे उबर, गुनकी लहरि भवकि । जब देखिड बेडा जरजरा, तथ उति परिउ हउ फर्क ॥६७ कबीर पापी भगति न भावई हरि पूजा न सुहाई । माखी चदनु परहरे, जह बिगंध तह जाइ ॥ ६८ ॥ कबीर बेदु मुआ रोमी मया, मूरा सबु संसारु। एकं कवीरा न मृञ्चा, जिह नाही रोवनहार ॥ && ॥ कबीर राम न घिआइओ।, मोटी लागी खोरि | काइआ हांडी काठ की, न उह चरे बहोरि ॥ ৩০ || कबीर ऐसी होइ परी, मनको भावत कीन । मरने ते किआ डरपना, जब हाथ सधउरा लीन ॥ ७१॥ केवीर रस को गांड चुक्षीएे, गुन कड मरीएे राई । अवगुनाआर मानस, भलो न कहि है कोई ॥ ७२॥ करवीर गागरि जल भरी, आजु कालि जह एूरि । गुरु जु चेतदहि आपनो, श्रध माली जहिगे लुटि ॥७३॥ कबीर कूकरु राम को, म्ुतीआ मेरो नाउ। गले हमारे जेवरी, जह खिंचे तह जाउ ॥ ७४ ॥ कबीर जपनी काठ की, फिआ दिखलावहि लोइ। हिरदे राम्म न चेतही, इह जपन्ी किआ होइ ॥ ७५॥




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