विद्यापति पद्यामृत | Vidhyapati Padhyamrit

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Vidhyapati Padhyamrit by ओंकारनाथ मिश्र - Onkarnath Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १७ ) लपमा-- । सुजन क प्रेमं ইন समतूल। दहश्त कनक निगुन शेय मूल | इरत नहिं इट- परेम श्रदभूत। অহন बढ़ए ভুলা कषून॥ इसी प्रकार समस्त पदावली में अलंकार भरे पड़े हैं, परन्तु इन अलंकारों की योजना स्व॒भावत; अपने आप हुई हे। विद्यापति को इनके लिये विशेष प्रयास नहीं करना पढ़ा है । विद्यापति णी ने अपनी पदावली में वेदर्मी रीति का अधिक अवलम्बन किया है । “इसी को उपनागरिका चत्ति' भी कहते 'हैं। उपनागरिका वृत्ति में सानुनाठिक वर्ण तथा वर्ग के पंचम-वर्णो! को योजना अधिक होती है । इधीलिये इस रचना में मधुरता अधिक সা जाती है | यही कारण है कि पदावली में माघधुय गुण कौ प्रषानता पाई ज्ञाती दे । पाठक पर्दों के पढ़ते ही रछ में डूब णाते एँ,. उसका मघुर आस्वादन करने लगते ई । विद्यापति के काव्य में प्रकृति चित्रण प्रकृति-चित्रेण काॉंठय का एक 'विशेष अंग' सद्या से रहा है। परन्तु हिन्दी साहित्य में उसे वह ख्याति नहीं प्राप्त हुई লী उंस्कृत एवं अंग्रेजी साहित्य में प्रात्त है। उसका कारण स्पष्ट है। हिन्दी में प्रकृति चित्रण स्वतंत्र रूप से हुआ ही नहीं है। जो कुछ हुआ भी है वह नहीं के बराबर दे । हिन्दी-कवियों ने प्रकृति को आलम्पन के रूप में न लेझर_विशेषतया उद्दीपन के रूप में 'ही लिया है ।. विद्यापति जी ने अपनी पदावली में जहशों कहीं प्रकृति चित्रण क्लिया ই वह केवल उद्दीपन के रूप में ही है। ` - भोरा रे अगन मा चनन केरि गछिया বাছি चदि कुरर्य काग रे};




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