रामकृष्ण परमहंस | Raamakrashn Pramhansh

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Book Image : रामकृष्ण परमहंस  - Raamakrashn Pramhansh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ [रामकृष्ण मत नहीं कह सकता। श्रीरामकृष्ण को मे अपना अन्तरंग अनुभव करता हं । इसका कारण यह नहीं है कि उनके शिष्यो के समान मं भी उन्हे भगवान्‌ का अवतार समझता हँ। उसका कारण यह है कि मँ उनके अन्दर मनुष्य का ददान करता हूं । वेदान्तियों के समान, आत्मा में भगवान्‌ वास करते ह, ओर आत्मा सवत्र विद्यमान है, इसलिये आत्मा ही ब्रह्म है, इस बात को स्वीकार करने के आग्रह्‌ मं मं किसी भाग्यवान्‌ पुरुष मं भगवान्‌ को सीमाबद्ध करने का कोई प्रयोजन नहीं देखता । कारण, अज्ञात रूप मं ही सही, परन्तु यह्‌ आध्यात्मिक जातीयतावाद का ही एक रूप है, इसलिये मं इसे स्वीकार नहीं कर सकता। जो कुछ भी मौजूद है, में उसके बीच में ही भगवान का प्रत्यक्ष करता हूं । अखण्ड विर्व के मध्य जिस प्रकार में पूर्ण भाव से उसका दर्शन करता हूँ, उसी प्रकार क्षुद्रतम खंड के बीच भी मं उसको देखता हूं । मूर सत्ता के मध्य कोई भेद नहीं है और समस्त विष्व मे ही यह शक्ति अनन्त व सीमाहीन टै । सामान्यतम परमाणु के बीच जो शक्ति गुप्त रूप से विद्यमान है उसे यदि हम केवल मात्र जान सके, तब उसके द्वारा ही समस्त विर्व को उडाकर ध्वंस कर सकना सभव दै । भेद केवर मात्र यही टै कि यही शक्ति अल्पाधिक रूप मं मनुष्य के विवेक मे, अहम्‌ मे, क्ति की इकाई में निहित दै । श्रेष्ठतम मनुष्य भी उस सूर्याखोकके ही स्वच्छतर व स्पष्टतर प्रतिविम्ब मात्र हैं जो प्रत्येक ओस के कण में झिलमिल करता है। इसलिये ही में आध्यात्मिक महापुरुषों के साथ, उनके पूर्ववर्ती व सम- सामयिक हजार-हजार अज्ञातनामा सहयात्रियों के बीच किसी प्रकार का कोई भेद-भाव नहीं देख पाता हूँ । भक्त लोग अवद्य इस प्रकार के पवित्र भेद को मानकर ही चलना पसन्द करते हैँ । आत्मा कीजो विपुरूवाहिनी युगयुग से अभियान करती चली आ रही है, उससे में जिस प्रकार बुद्ध व ईसा को तिल मात्र पृथक्‌ करके नहीं देखता हृं, उसी प्रकार रामकृष्ण व विवेकानन्द को भी अलग नहीं देख पाता। गत बताब्दी के नवजाग्रत भारत में जिन समस्त प्रतिभावान्‌ व्यक्तियों ने जन्मलाभ करके, अपने देश की प्राचीन शक्ति को पुनर्जीवित किया दै, देड में सरव॑त्र विचार के वसन्त की बहार लाये हैं, इस पुस्तक मे म उन्हें यथायोग्य स्थान देने का प्रयत्न करूंगा । उनमें से प्रत्येक का ही कार्य निर्माणशीर था। ओर उनमें से प्रत्येक को कुछ विश्वासी मनुष्यों के दल ने घेर लिया था.--जिन्होंने अपना अलग-अलग एक-एक सम्प्रदाय खड़ा कर लिया




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