दबेपांव | Dabepaanv

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दबेपॉव ७ हम लोग क़िले के मन्दिरों को देखते फिरे। मूर्तियों की मुद्रा एकान्त शान्ति की थी । उन सबका एकत्र प्रभाव मन में. सुनसान पैदा करता था| परन्तु उस सुनसान में होकर जब मन विष्ण_ के अ्र्धस्मित की ओर झांकता था, तब उस स्मित की झांकी में जीवन दिखलाई पड़ जाता था । धूमते घूमते हम रोग क़िले के छोर पर पहुँचे । उस स्थान का नाम नाहर घाटी है। वहाँ खड़े होकर बेतवा नदी का ऊबड़-खाबड़ प्रयास देखा। क़िले की पहाड़ी से सट कर बहती है। नदी-तल में टोरें, पत्थर जल-राशियाँ और वक्ष- समूह हैं । नाहर घाटी के नीचे गहरा नीला जल, और ऊपर, पहाड़ी पर से, बहता हुआ धूमरा काला शिलाजीत । नदी तल में, एक टापू पर, क़तार बन्द वृक्ष--समूह को देखकर मेरे मित्रों को आश्चर्य हुआ । एक ही क़द के, एक से डोल के, क़तारों में खड़े पेड़ों को देखकर, मनुष्य के बनाये उद्यान का भ्रम हुआ । परन्तु उस वृक्ष समूह मे प्रकृति और केवल प्रकृति की कला के सिवाय और किसी का हाथ था ही नहीं, इसलिए भ्रम को कोई गुन्जायश नहीं मिली । पहाड़ों, जंगलों श्रोर नदी की करामातों के भिन्‍न भिन्त दृश्यों को देखते देखते मन थकता ही न था। यहाँ तक कि गांठ का सब खाना निबटा लेने के बाद भी, काली अंधेरी रात और बिकट बीहड़ मार्ग की चिन्ता न थी; गई रात जाखलोन पहुंच कर क्या खायेंगे इसकी कोई फ़िक्र नहीं । जब रात हो गई तब हम लोग वहां से टले ।




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