सार्थवाह | Sarthvaah

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Sarthvaah by मोतीचन्द्र - Motichandraवासुदेवशरण-Vasudevsharan

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मोतीचन्द्र - Motichandra

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वासुदेवशरण-Vasudevsharan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ७ ) से इन पर छु प्रकाश उतना सम्भव दो सका है। नगरहार के पास जिस हस्तिन्‌ के प्रदेश का उरलेख श्राया है वह पाणिनि का हास्तिनायन ( ६।४।१७४ ) यूनानी 25818] था जो पुष्क्तावती के ध्ास-पास था । यूनानियो ने दो नाम ओर दिए हैं; क 08088101 जो कुन नदी की द्रौणी मे बसे े पाणिनि के घ्ाश्वायन थे ४।६।११०); झोर दूसरे 58217201 जो स्वात नदी के प्रदेश मे बसे आश्वकायन (४।१।६६) थे । इन्हीं का एक नाम्‌ 5881601 भी भ्राता है जिसके समकक पाणिनि का शअश्वकाः शब्द्‌ था] अश्वक था ध्राश्वकायनौ का सुदढ गिरि दुगं 07108 था जिस प्र अधिकार करने मे सिकन्दर के भी दातो म पसीना श्राराया था! उसका पाणिनीय नाम चरणा , ४।२।८२ ) था] स्छाहनने शस दुगं को खोज निकाला था। इस समय उसे ऊण या ऊणरा कहते हैं। यहाँ के चीर अश्चक स्त्री, बच्चो समेत तिल-तिल कट गए ; पर जीते जी उन्होंने वरणा के अजयथ्य गिरिदुग में शत्रू, का प्रवेश नहीं होने दिया। अन्य नामों में गोरीयन गौरी नदी के तथ्वासी थे. न्‍यासा पतंजलि का नेश जनपद ज्ञात होता है) यूनानी सूलिकनोस व्याकरण के झुचुकर्णि, ओरिताइ वातय, आरबिताश आरभट जिसके লাল प्र लाहित्य में आरभटी द्त्ति शब्द प्रचलित हुआ, म्ास्मनोई ब्ाह्मणक जनपद था जिसका उल्लेख पाणिनि ( ५।२।७२, ब्राह्मणकोएिणके संज्ञायाम्‌ ; बाद्यणको देशः यत्रायुधजीविनो नाद्यणकाः सन्ति, काशिका ) भौर पतंजलि बाह्धणको नाम जनपदः ) दोनों ने किया है। पतंजलि ने इसो के पड़ौस में बसे हुए शूद्धक नाप्न क्षत्रियों का भी उल्लेख किया है जो यूनानियों के 50079७ या 5577]208 थे। इनसे জী मोतीचन्द्र जी ने जिन अन्य नामों को संस्कृत पहचान दी है, उनसे यह सिद्ध हो जाता है कि यूनानी भोगों लिक सामग्री का ठोस आधार भारतीय भूगोल में विद्यमान था। उसकी पहचान के लिये हमें झपने साहित्य को ट्टोलचा आवश्यक है। लेखक का यह सुराव कि जेन साहित्य के २९४ लनपद्‌ सस्भवतः मोय साप्राज्य की भुक्तियां थीं ( ए० ७४ ) एक दुस मौलिक है । कौरिस्य में प्रतिपादित कई प्रकार के प्थो का ओर शरक के नियमों का विवेचन भी बहुत अच्छा हुआ है। द्वोणमुख ( ए० ७७ ) का प्रयोग सिन्धु नद पर स्थित श्ोहिन्द के ठसपार शकरदर्य ( श द्वार ) के खरोष्ठी लेख में आया है जहाँ डसे 'दुणमुख” कहा है। इसका ठीक अर्थ उन पत्तनों का चाची था जो किसी नदी की घाटी के अन्त में स्थित होते थे भौर पने पीे फली हई दोणी के व्यापार के निकास मागं का कान देते थे । रेसे पत्तन समुद्र के कच्छ मे भी हो सक्ते थे, जेषे भररच्छु श्र शर्पारक जिनके पीदधे नदी-दोरियां की भूमि फली थी ! डाकेम्तार जहाजो ( पाहरेट बोट ) के किये प्राचीन पारिभापिक शब्द्‌ हलि ध्यान देने योग्य है ( ए० ७६ )। सोयकाल में राज्य की ओर से व्यापार षो सुरक्षित रोर सुब्यवस्थित करने की झोर बहुत ध्यान दिया गया था, ऐसा श्रथ॑ंशास्त्री की प्रभूत सामग्री से स्पष्ट होता है। उसके वाद्‌ शुगकाल में भी चही व्यवस्था चलती रषी | मौ्ी ने भी जो काय नहीं क्या था धर्थात्‌ सामुद्विक व्यापार की उन्नति, उसे सातचाइन राजाओं ने पूरा किया। सत्ताबों ने शकों की जिन चार ज्ञातियों के नाम गिनाए हैं उनकेे पर्याय भारतीय साहित्य झोर पुरातस्व मे निले दै, जवे 8517 भाषौ या ऋषिक छाति थी। मथुरा में कटरा फेशव देव से प्राप्त शोघिसत्व सूतिक दरण चौकी द्र জলীহা লাল জী ফী ঘা




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