लक्ष्य - वेध | Lakshy Vedh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लक्ष्य-बेध भी कर दिया | और झ्भय आश्चययं से देखता रहा कि उस जल कलशी से पतली धार में रिसता हुआ और उस गौरांगना के मुह को भिगोता हुआ पानी वहना बंद हो गया है । यह अ्रभय के लक्ष्य-वेघ का चमत्कार था । मानसिंह ने वाण पर लाख लगाकर उस जल कलशी के छेद पर ऐसा अचूक निशाना लगाया कि लाख लगकर छेद बंद हो गया । श्रपमान से आ्राहत कन्याएँ तब घाट से अपने-अपने घरों की ओर चल पड़ी थीं । लक्ष्य वैध की क्रिया-प्रतिक्रमाओं का एक अनोखा क्रम चला । भीतरी लक्ष्य वेध शुरू किया था श्रभय ने कि बड़े भाई की आान्तरिकता में सुचारू परिवर्तन लाया जाय | मानसिंह ने दो लक्ष्य वेध किये और दोनों वाहरी थे | पहला तो उसकी चंचल मनोदृत्तियों का परिणाम था, किन्तु दूसरा लक्षय वेष श्रभय के भीतरी लक्ष्य-वेध की सुधारक प्रतिक्रिया थी । मान श्रौर श्रमय विचारो की परिपक्वता में उतने समीप तहींथे क्योकि मानके मन को उसका घूर्त मित्र भरमाता रहता था । किन्तु श्रमय प्रतिपल मान का मान रखने का--बनाने का प्रयास करता था । बसे दोनों भाइयों का आपसी स्नेह अपार था--दोनों दो शरीर अवश्य थे लेकिन मन-प्राण से एक थे | वड़ा भाई कभी वेपरवाह हो जाय, मगर छोटे भाई की वड भाईके लिये की जाने वाली परवाह में कमी मी कमी नहीं श्राती थी । वह तो जैसे वर्ड भाई के लिये श्रपना सब कुछ समर्पित किये हुए था--बड़ा भाई उसका देवता भी था जिसके लिये वह अपने प्राणों का अ्रध्य भी चढ़ा सकता था तो बडा भाई उसका शिष्य भी था जिसकी हितकामना में उसकी देख-रेख की प्रांख हर समय लगी रहती थी । मान का एसा श्रादशं भ्राता था अभय, जो जँसे बडे भाई के लिये ही बना था । दूसरे लक्ष्य वेध के बाद अभय ने द्रवित से होते हुए अपने बड़े भाई से कहा “भाई साहव, भ्रच्छा किया कि अपमान के रूप में रिसते हुए पानी को आपने बंद कर दिया--पहले लक्ष्य वेध का इस तरह आपने प्रायश्चित तो कर लिया। किन्तु इस बीच क्या आपने अपने विचारों के परिवर्तन को समभने का प्रयास किया ? ” भाई ग्रभय, तुमने ठीक कहा था--मेरा ही दोष है, मैंने नहीं माना कि जीवन को स्वस्थ, स्वाधीन और सुन्दर बनाने का ही लक्ष्य बनाना चाहिये और ऐसे आन्तरिक लक्ष्य शा से ही कोई सच्चा घनुर्धारी वन सकता है। मेरे ये वाहर के निशाने तो महत्त्वहीन हैं । मुझे वहुत दुख: है कि मेनें तुम्हारी सीख के वाद भी मर्यादा तोडी और मैं यह श्रोद्धी हरकत कर बैठा । मैं भविष्य में वहुत सावधानी रखू गा ।” जब मानर्सह ने यह कहा तो उसकी आंखों से पश्चात्ताप के आंसू करने लगे थे । दोनों भाई एक दूसरे के गले लग गये । संघ्याकालीन सूर्य की रक्ताभ किरणं भीतरी भावों से चमकते हुए उन दोनों चेहरों को अधिक प्रदीप्त वना रही थी । ग्रान्तरिक लक्ष्य वेध जसे सार्थक हो गया था 1




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