सोहन काव्य - तथा मंजरी भाग - 8 | Sohan Kavya Katha Manjari Bhag - 8

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Sohan Kavya Katha Manjari Bhag - 8  by आचार्यप्रवर सोहनलाल - Acharyapravar Sohanalal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ग्राज रात भर खेलेंगी यहां, चांद दे रहा साथ। धवल चांदनी टकी रही है मानो सुखद प्रभात जी ।२८॥ मानवती कहै श्राज नहीं हम कल, खेलेंगे खेल । कल तो हमारा बिवाह होयेगा, फिर कब होगा मेल जी 11२९।। विवाह संबंधी बातें छिड़ गई, चारों कहें तत्काल । सास, ससुर, पति कंसे होंगे, कैसा मिले ससुराल जी 11३०॥। ना जाने कंसे होंगे वे, ऋजु वा होय कठोर। परतन्त्रता में बंध जावेगी, स्वतन्त्रता की छोर जी 11३ १1। सास ससुर श्ररु पति श्राज्ञा में रहता है दिन रन) मानवती सुन सब की बातें बोली नहीं एक बेन जी 11३२॥। मौन देखकर चारों बोलीं, श्रपनी नहीं सुनाय। किन्तु यह बंधन तो सुनले, एक दिन तुभ पर श्रायजी 11३३॥।। मानवती कहे बंधत नहीं यह, कत्तेव्य श्रपना मान । मर्यादा में सदा रहें हम इसमें श्रपनी शान जी ।३४।। वे बोली वहां मर्यादा क्‍या, पश्राज्ञा होय प्रमाण । नार पुरुष की दासी होती, चले न कुछ लो जान जी 11३५॥। जीवन संगिनी, सह धमिणी, सहचारिणी नार। दासी नहीं कहुलाती नारी, मानवती प्रनुसार जी ।३६।। एक सखी कहे सुनलो मेरी, है जग का व्यवहार । दासी रूप में सदा रहे वह, चले श्राज्ञा भ्रनुसार जी 11३७।। कंसा भी हो पागल कपटी, दुराचारी भरतार। ग्रवगुण कितने भी हो माने, पृज्य रूप में नार जी 11३८।। मानवती कहै नहीं मान्‌, वे कहती लोगी मान। विवाह बाद पति बंधन में यह श्रकड सभी निकलेगी ले जान जी ।३९।। प्रकड़ पति यदि मिला मुभे तो दू गी श्रकड निकाल । सुनकर सखियां हंस गई सारी बोली एक तत्काल जी 11४०।। प्ररि | बनाकर श्रश्व पति के देगी लगाम लगाय । गाली देकर पांव पूजाये चरणामृत पिलाय जी ।४१।। मानवती कहे सखियां सुनलो जो जो बात सुनाई । विश्वास दिलाती हूं मैं तुमको दृू गी कर दिखलाई जी ।1४२॥।। सखियां बोली तू तो तन या धनपति की कहलाय । गरीवसे कर विवाह उसे तू श्राज्ञा मांहि चलाय जी 11४३।। गरीब ही क्यों लक्ष्मीपति भी पत्ति मुझे मिल जाय । शक्ति से नहीं बुद्धि बल से लूगी काम वनाय जी ॥1४४।। ३




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