जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा भाग - 1 | Jayapur (khaniya) Tattvacharcha Aur Uski Samiksha Bhag - 1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अपनी वात १५ एक बात और है। वह यह कि उपर्युक्त वक्तव्यम प० फूलचन्द्रजीने जो यह्‌ छिखा है कि “इस प्रकार तीसरे दौरकी प्रतिशकासामग्रीके प्राप्त होनेपर हमारे सामने अवश्यही यह्‌ सवाल रहा है कि हम इसे स्वीकार कर उसके आधारपर प्रत्युत्तर तैयार करें या नियमविरुद्ध इस लिखित सामग्रीके प्राप्त होनेसे हम उसे वापिस कर दें ।”? मेरा मत है कि पण फूलचन्द्रजी या समस्त सोनगढ पक्ष प्रतिशका तीनकी उस सामग्रीको नियम- विरुद्ध कहकर कदापि वापिस नही करते, क्योकि उसे वापिस करनेके प्रतिकूल परिणामको वे अच्छी तरह समझते थे 1 अतएव सामग्रीको जो उन्होने वापिस नही किया वह अपरपक्षके प्रति उनकी उदारता या दया नही थी, अपितु वह उनकी प्रतिष्ठाका प्रश्न थ। । उपयुक्त छ्िखनेमे उनका उद्देश्य केवल अपरपक्षको प्रामाणिक भौर अयोग्य प्रचारित करना था । मै प० फलचन्द्रजी गौर समस्त सोनगढ पक्षकी इस मनो- वृत्तिको समझता था, अत मैंने प्रतिशका तीनकी सामग्रीके साथ प० फूलचन्द्रजी और मध्यस्थजी दोनोको जो विवरण-पत्रकी प्रति भेजी थी उसमें सभी आवश्यक बातें स्पष्ट कर दी गई थी । इसके अतिरिक्त उस सामग्रीपर मध्यस्थके हस्ताक्षर न होना कोई महत्त्वपूर्ण त्रुटि नही थी, जिसके कारण वह सामग्री सोनगढपक्षके लिए विचारके अयोग्य हो जाती । प० फूलचन्द्रजी और समस्त सोनगढ़ पक्ष इस तथ्यको जानते भी थे । यही कारण है कि उस सामग्रीको वापिस न कर उसपर सोनगढ़ पक्ष द्वारा विचार किया गया । प० फूलचन्द्रजीने जयपुर-खानिया तत्त्वचर्चाके सम्पादकीय पृष्ठ ३३ पर उसी जैसे अन्य नियमोके उल्लघनके विषयमे लिखा है कि 'सम्मेलनकी कार्यवाही तारीख २१-१०-६३ से १-११-६३ तक चटी थी । इन दिनोमें तत्त्वचर्चाके दो दौर सम्पन्न हो चुके थे तीसरा दौर होना शेष था । किन्तु सेमी विद्वान्‌ भपने- अपने घर जानेके लिये उत्सुक थे। इसलिये तीसरे दौरको सम्पन्न करनेके लिये अलगसे नियम बनाये गये । किन्तु उन नियमोमेंसे पृष्ठसख्या और समयकी मर्यादा निदिचत करने वाले नियमोका दोनो ओरसे समुचित पालन न हो सका । परन्तु इससे तीसरे दौरको सम्पन्ने करनेमें कोई बाधा नही आयी ।' इससे सहज ही इस निष्कर्षपर पहुँचा जा सकता है कि यत॒ पृष्ठसख्या और समयकी मर्यादा निदिचत करनेवाले नियमोका उल्लघन सोनगढ पक्षने भी किया था, फिर भी उसे तो उन्होने युक्त बतला दिया, लेकित्त मध्यस्थके हस्ताक्षर सम्बन्धी नियमका उल्लघन অব केवल अपरपक्षने किया था, अत उसको ही उन्होने अयुक्त बतलाया । पं° फूलचन्द्रजी ओौर समस्त सोनगढका यह कार्यं न्याय मौर विवेकके अनु- सरणका नही माना जा सकता है। मैं तो इसे उनका चातुर्य ही कहेँगा कि उन्होने अपने अनुकूल भौर अपरपक्षके प्रतिकूल प्रचार करने हेतु सगत-असगत और सच-झूठ सभी उपायोका सुन्दर ढगसे उपयोग किया है ! अस्तु । प्रस्तुत समीक्षा-ग्रन्थ १ प्रस्तुत भ्रन्थ जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चाक्ी समीक्षाका प्रथम खण्ड हैं । इसमें उक्त चचकि सभी--१७ प्रश्नोत्तरोमेंसे केवल आदिके चार प्रश्नोत्तरोकी समीक्षा की गईं हैं। शेष १३ प्रद्नोत्तरोकी समीक्षा आगामी खण्डोमें की जायेगी । २ इस खण्डमें उफ्त चारो प्रध्नोत्तरोकी समोक्षाके चार-चार प्रकरण निर्धारित किये गये हैं-- (१) सामान्य समीक्षा, (२) प्रथम दौरकी समीक्षा, (३) द्वितीय दौरकी समीक्षा और (४) तृतीय दौरकी समीक्षा ।




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