न्यायावतार | Nyayavatar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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উল ~ ------------ ~~~ ~------~--~-----------------~~ ~“~-~-~~-------------------~~--------------+~---- ~~ ~~ ~ ~~~ ~~~ ~~ ~~~ आादि-वाक्यकी সৎ अ० ] न्यायाघतारः | ७ शब्दसे अर्थ ( पदार्थ ) की उत्पत्ति स्वीकार करनंपर किसीकी भी इच्छा अपूर्णं न रहेणी, सव पूरणेन्ट हो जायेंगे; ' भेरे पास करोड़ रुपयेका सोना हो जाय ? ऐसा उच्चारण करते ही अस्यन्त दरिद्री मी पुरुष * करोड़ रुपयेके सोनेका धनी हो जायगा। और न ' अ्थसे शब्द उत्पन्न होता है ? यह द्वितीय विकरुप ২ ৯৬ ৬২ ही ठीक है, क्‍योंकि ऐसा माननेपर दो दोष उत्पन्न होंगे। वे दोप ऋमसे ये हैं :--- ( अर) यदि अर्थ है, तो उस अर्थकों कहनेवाझे शब्दका ज्ञान भी अवश्य होना चाहिये; और यदि अर्थ नहीं है, तो उसको कहनेवाले शब्द या शब्दोंका भी ज्ञान नहीं होना चाहिये । परन्तु यात उल्टी देखी जाती है। जिप्त पुरुषको शब्द और अथंका वाच्य-आचकमभाव सम्बन्धरूप संकेत मादुम नहीं ই, उत्त पहली बार ही ' पनस ” ( एक प्रकारका फल ) के दीख जानेपर भी, तद्/चक शब्दका ज्ञान नहीं है, तथा ' अड्गुलिकी नोंकपर से हाथी हैं ” इत्यादि शब्द भिना वैसे अर्थके वियमान होते हुए भी (क्योंकि पेसा बाच्य तो है नही), यदस निकर जाते हैं । (ब ) अ्थके अन्द्रसे शब्द सुनाई देने चाहिय । परन्तु केवर भर्थमात्रसे- पुरुप उपे जानना चाहें, इसकी विना परवाह कियरे--शब्द निकलते हुए न देखे जाते हैं, और न ऐसा होता है । शब्दके निकलनेका क्रम इस प्रकार हैः--पहले अर्थक्रा दर्शन होता है, उसके बाद उत्तक्के प्रतिपादन ( दूधवराकी बतढाने ) की इच्छा होती दे, फिर बोलनेकी इच्छा ( विवक्षा ) होतो है, भनन्तर स्थान ( मुँहके अन्दरंस जहँसे शब्द निकलता हैं ) और करण ( इन्द्रिय ) का परस्पर अभिषात ( रगड़ ) होता ই, গা নন फिर शब्द निकलता है । इस तरह शब्द अर्थसे उत्पन्न नहीं होता है । इस प्रकार तादात्म्य और तदुत्पत्ति दोनोंमेंसे किसीके भी न द्ोनेसे वहिरथेम शब्दोंकों प्रामाण्य नहों है | जब राष्दोंको प्रामाण्य नहीं है, तो “आदि-वाक्य ! भी प्रामाण्य नहीं है, क्योंकि वह तो शब्दोंका ही समूहमात्र है । ८ व ) जेनका उत्तरपक्ष १ 'तदुत्पत्ति ', २ तदाकारता ', ३ 'तदध्यवसाय ' ये तीनों ज्ञान और अथके ग्राह्म ग्राहक- भावमें कारण नहीं हैं बोद्दके ऊपरके कथनका सारांश एक ही है कि जब शब्द और अथका परस्परमें कोई सम्बन्ध ही नहीं है, तव आदि-वाक्य--जो कि शब्द-पमूह है-अपने अर्थ ' प्रमाण ! को कैसे कह्देगा ? इसका उत्तर टीका- कार श्रीसिद्वषिंगणि ग्रतिपक्षीके रूपमें यों देते हैं कि तुम भी हमें यह बताओो कि-प्रत्यक्ष ( ज्ञान ) भी किस तरह अपने अ्थको ग्रहण कर सकेगा ! कहोगे कि प्रत्मक्षम प्रमाणता ग्राद्म-प्रादकभाउरूप सम्बन्धके बल्से हे। प्रत्यक्ष (ज्ञान) ग्राहक है ओर अर्थ तथा उसकी प्रमाणता प्राद्म है [--तो शब्दमें भी वाच्य-बाचकमावरूप सम्बन्धपे, अपने अथको बतानेम प्रमाणठा है | शब्द धाचक है और अर्थ दाच्य है | यहाँ प्रकरणमें ' आदि-बाक्य ” वाचक है और “प्रमाण ? दाच्य है। शब्द और अर्थमें दाच्यवाचकमावरूप सम्बन्ध हो सकता है, यह्द वौद्धकी समझमें नहीं आता, उसकी समहमे यह तो भडीमौति आठा है कि प्रत्यक्ष (ज्ञान) और अधमें वेध-बेदक या ग्राह्म-प्राहकमाद है | उसके मतसे प्रत्यक्ष और জম বশী ~+ ~ ~




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