प्रेमसूत्र भाग १२ | Premsudha Part-xiii
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
250
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भाव-ग्ररिहन्त को उपासना १६
इन्द्रियों का पोषण करने वाले ही नशा करते हैं। साधारण
नगा तो कुछ समय मे उतर जाता है किन्तु मिथ्यात्व रूपी नशा
सहज > नही उतरता ।
तो अभिप्राय यह है कि आपको ऐसे देव के प्रति श्रास्था प्राप्त
हुई है जो परम वीतराग है, सर्वंधा निविकार है, कृतक्ृत्य है अनन्त
ज्योति के पज हैं, जो आध्यात्मिक विकास के चरम विन्दु पर पहुँचे
हैं। ऐसे अद्वितीय परमात्मा के उपासक होकर भी अगर आपने
आत्मकल्याण के लिए यत्न न किया तों फिर कब करोगे ? कौन
जानता है कि भविष्य मे ऐसा अवसर कब मिलेगा २ अ्रतएव जो
स्वर्णावसर प्राप्त हञ्ना है, उसका सद॒पयोग करों ।
धर्म भी आपको असाधरण मिला है ! धर्मंको कस्तोटी
अहिसा है, दया है । जहाँ अहिसा है, वहाँ घर्म है ओर जहाँ हिसा
है, वहां अधर्म है । वोतराग देव के द्वारा प्ररूपित धर्म आत्मा के
समस्त रोगो का विनाश करने वाले लोकोत्तर रसायन के समान
है । यही भ्रात्मा के लिए कल्याणकारी है और इसके विना श्रत्मा
का कल्याण नही हो सकता | अपना अहोभाग्य समझो कि आपको
इस लोकोत्तर धर्म को श्रवण करने का अवसर मिला है । अनन्ता-
नन्त प्राणियो से भरे उस जगत् मे किसे ऐसा पुण्यावसर मिलता है ?
इस प्रकार को सामग्री मिलने पर मनुष्य चाहे तो थोडा-सा
पुरुपार्थ करके ही श्रात्मा का नाव्वत कल्याण कर सकता है । इस
अवसर के मूल्य को जो समभता है वहो बुद्धिमान् है, वही ज्ञानी है
ओऔर वही विवेकशील है ।
जो अरिहन्त भगवान् के गुण गाते है और उन गुणों के प्रति
User Reviews
No Reviews | Add Yours...