स्वामी दयानन्द सरस्वती | Svaamii Dayaanand Sarasvatii
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3.98 MB
कुल पष्ठ :
122
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)जीवन यात्रा साधना एवं सजना 15 घ्मे की श्रेष्ठता दिखाने के लिए हिन्दू धर्म पर उसकी कुरीतियों का प्रदर्शन करके सीधा आक्रमण दूसरा वहाँ की भाषा और यहाँ के व्यवहार सीखकर धीरे-धीरे अपनी धर्म-पुस्तकों का प्रचार करना और पीड़ित जनता की नाना रूपों में सहायता करना । ऐसी अवस्था में जहाँ एक ओर हमारे ज्ञानचक्षु खुले । नयी सभ्यता के मुक्त प्रांगण में मुक्त होकर साँस लेने का भवसर मिला वहाँ दूसरी ओर उनके आक्रमण का जवाब देने के लिए हमने आत्म-मन्थन भी शुरू किया और अनुभव किया कि हमारे अतीत में जो कुछ शुभ भौर सुन्दर था उसे भूलकर हम रूढ़ियों कुरीतियों और नाना प्रकार के पाखण्डों में फंस गये हैं । छुत-छात बाल-विवाह वुद्ध-विवाह तारी जाति का अपमान कन्या-बघ सती-प्रथा जाति-पाँति ऊँच-नीच कोई अन्त नहीं इन दुष्कर्मों का । आवश्यकता उनसे मुक्त होने की है । ऐसा होने पर हम पश्चिम के आक्रमण का जवाब दे सकेंगे । इस प्रक्रिया ने सबसे पहले बंगाल में विचार क्रांति को जन्म दिया । उसी के फलस्वरूप भारतीय राष्ट्रीयता के जनक राजा राममोहन राय ने सबसे पहले इस प्रक्रिया को आन्दोलन का रूप दिया । बंगाल में ही तो सिरामपुर ईसाई विचारकों का सबसे बड़ा गढ़ था । इनका उद्देश्य चाहे जो रहा हो पर यह सच है कि इनकी कारण ही उननीसवी सदी के पूर्वाध तक भारत में विशेषकर बंगाल में सामाजिक चेतना का उदय और विकास हुआ और यह एक संयोग ही है पर सुखद संयोग कि जिस वर्ष इस सारे ऊहापोह से दूर काठियावाड़ के एक छोटे-से गाँव में मूलशंकर का जन्म हुआ उसी वर्ष अर्थात् 18 24 में राजा राममोहन राय ने अपने आंदोलन का श्रीगणेश किया । स्वामी दयानन्द के जीवन की सामग्री की खोज में पच्चीस वर्ष खपा देनेवाले श्री देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय ने राजा राममोहन राय के जन्म के समय की स्थिति का उल्लेख अपनी अलंकृत भाषा में इस प्रकार किया है राममोहन राय को जिस अन्धकार-जाल का प्रभेदन करके भारत-भूमि पर पदापंण करना पड़ा था वह अति-प्रगाढ़ अति-विकट और अति-विस्तृत था। तंत्राचायंगण उस तमोरात्रि के भीतर धर्म और धघार्मिकता का नाम. लेकर बहुत प्रकार के पापों का अनुष्ठान करते थे । नर-हृत्या सुरापान और पर- स्त्रीगमन आदि जुगुप्सित कार्य तंत्राचा्यों की उपासना के सहायक थे । दूसरी ओर नाम साधन और नाम संकीतंन आदि काम जैसी बाह्ा वस्तु बैष्णव समाज में समाहित होते थे मस्तक-मुण्डन शिखा-घारण मालाग्रहण न्दन-लेपन और अपने-अपने नाम के पीछे दासानुदास आदि शब्दों का प्रयोग आदि बाह्य व्यापार-समूह भक्ति-पथ के परम साधक समझे जाते थे
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