घाटी में पिघलता सूरज | Ghati Mai Pighalta Sooraj
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
147
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)जंगल में हांफती रेत की नदी / 17
पीता घर मिला | गाव में ही सब संपन्न रूप से रहते थे। कपड़े की एक
दुकान थी, जो खूब चलती थी। उसी पर मेरे जीजाजी व दीदी के ससुर
बैठते । जेवर-कपड़ी की दीदी पर कमी नही रही, परन्तु सभी अमीरो की
तरह उनके ससुराल वाले भी दूसरों के लिए बड़े कंजूस थे, क्योकि एक-
दो बार छोटे भाई का वहां जाना हुआ, तो उन लोगों ने बडे सस्ते कपड़े
भौर विदाई पर एक रुपया दिया ।
किसी भी क्षेत्र मे परी और दीदी की होड नही हो सकती थी, लेकिन
हम दोनों में एक-दूसरे के लिए बही गहरा प्यार था। दीदी ने आज
तक मेरे सामने न तो कभी अपने घर की डोग मारी और न जेवर-कपड़ो
का दिखावा ही किया। हम दोनों जब-जब भी मिली, खूब प्रेम से मिली ।
अक्सर देखा गया है कि खाते-पीते घर की औरतें कभी पूरी तरह से
संतुष्ट नही रहती । दीदी को भी शिकायत थी कि शामिल की गृह॒स्थी में
उनका मन नही जुड़ता । গাইনী সতী ভর निभ नाती धी, लेकिन
देवरानी-जिठानी मे नही पंटती थी । दीदी फिर भी सुलह करने की कोशिश
करती, सेकिन जिठानी तो जैसे वारूद का गोला थी, जो हर घड़ी इधर-
उधर आग बरसाती रहती थी । घर के किसी भी प्राणी से उनका मिजाज
नही मिलता था । लाल मि्च-सी पूरे दिव ततकती रहती। छोटी-छोटी
वातो पर तू-तृ, मे-मैं होती रहती ।
सबसे ज्यादा दुडी तो उस परिबार में मांजी थी* 'दीदी की साथ ।
दो-दो सपूत पैदा करमे के बाद भी उनकी आत्मा प्यासी-सी भटकती रहती ।
स्तर वर्ष की उम्र में भी उनके जी को चेन नही था। घर की कांय-
कय भौर बडी वहू का याक्न-फाड, स्वभाव उनके प्राण पाए रहता था। ,
बुढ़ापे के हाथ-पैरो को घड़ी भर भी आराम न था। जब भी दीदी
उनके कप्टो का वर्णन करतो, तव में यही कहती---
“दीदी ! तुम कम-सै-कम अपनी ओर से उन्हे कोई कष्ट न देता ॥”
दीदी जवाब देती --
“बरी, उम्त कवाड़याने में मेरी क्या वकत है !”
दो साल पहले दीदी के लड़के का मुडव था। ग्रुड़गांव बाली शीतला-
मां की जात बोली थी। हमें भी बुलाया था । सोचा, चलो इसी बहाने
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