घाटी में पिघलता सूरज | Ghati Mai Pighalta Sooraj

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Ghati Mai Pighalta Sooraj by सावित्री परमार - Savitri Parmar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जंगल में हांफती रेत की नदी / 17 पीता घर मिला | गाव में ही सब संपन्‍न रूप से रहते थे। कपड़े की एक दुकान थी, जो खूब चलती थी। उसी पर मेरे जीजाजी व दीदी के ससुर बैठते । जेवर-कपड़ी की दीदी पर कमी नही रही, परन्तु सभी अमीरो की तरह उनके ससुराल वाले भी दूसरों के लिए बड़े कंजूस थे, क्योकि एक- दो बार छोटे भाई का वहां जाना हुआ, तो उन लोगों ने बडे सस्ते कपड़े भौर विदाई पर एक रुपया दिया । किसी भी क्षेत्र मे परी और दीदी की होड नही हो सकती थी, लेकिन हम दोनों में एक-दूसरे के लिए बही गहरा प्यार था। दीदी ने आज तक मेरे सामने न तो कभी अपने घर की डोग मारी और न जेवर-कपड़ो का दिखावा ही किया। हम दोनों जब-जब भी मिली, खूब प्रेम से मिली । अक्सर देखा गया है कि खाते-पीते घर की औरतें कभी पूरी तरह से संतुष्ट नही रहती । दीदी को भी शिकायत थी कि शामिल की गृह॒स्थी में उनका मन नही जुड़ता । গাইনী সতী ভর निभ नाती धी, लेकिन देवरानी-जिठानी मे नही पंटती थी । दीदी फिर भी सुलह करने की कोशिश करती, सेकिन जिठानी तो जैसे वारूद का गोला थी, जो हर घड़ी इधर- उधर आग बरसाती रहती थी । घर के किसी भी प्राणी से उनका मिजाज नही मिलता था । लाल मि्च-सी पूरे दिव ततकती रहती। छोटी-छोटी वातो पर तू-तृ, मे-मैं होती रहती । सबसे ज्यादा दुडी तो उस परिबार में मांजी थी* 'दीदी की साथ । दो-दो सपूत पैदा करमे के बाद भी उनकी आत्मा प्यासी-सी भटकती रहती । स्तर वर्ष की उम्र में भी उनके जी को चेन नही था। घर की कांय- कय भौर बडी वहू का याक्न-फाड, स्वभाव उनके प्राण पाए रहता था। , बुढ़ापे के हाथ-पैरो को घड़ी भर भी आराम न था। जब भी दीदी उनके कप्टो का वर्णन करतो, तव में यही कहती--- “दीदी ! तुम कम-सै-कम अपनी ओर से उन्हे कोई कष्ट न देता ॥” दीदी जवाब देती -- “बरी, उम्त कवाड़याने में मेरी क्या वकत है !” दो साल पहले दीदी के लड़के का मुडव था। ग्रुड़गांव बाली शीतला- मां की जात बोली थी। हमें भी बुलाया था । सोचा, चलो इसी बहाने




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