गोम्मटसार | Gommtsaar

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Gommtsaar  by नेमिनाथ - Neminathपं. कैलाशचंद्र शास्त्री - Pt. Kailashchandra Shastri

लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :

नेमिनाथ - Neminath

No Information available about नेमिनाथ - Neminath

Add Infomation AboutNeminath

पं. कैलाशचंद्र शास्त्री - Pt. Kailashchandra Shastri

No Information available about पं. कैलाशचंद्र शास्त्री - Pt. Kailashchandra Shastri

Add Infomation About. Pt. Kailashchandra Shastri

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
खाद्य वक्तव्य सम्भवतया सन्‌ १९६४ या ६५ की बात है। डं. ए. एन. उपाध्येने मेरे पास कैशववर्णोकी कन्नड टीकाकी नागराक्षरोंमें लिखित गोम्मटसार टीकाके प्रारम्भके क पृष्ठ भेजे भौर उसक्रौ सस्कृत टीकाके आधारपर उसका हिन्दी अनुवाद करनेकी प्रेरणा की । मैंने अनुवाद प्रारम्भ किया, किन्तु वह रोक देना पडा, क्योकि कन्नड टीकाके शौधनके लिए प्राचीन कन्नड़ भाषाके जानकार विद्वान्‌की प्राप्ति नही हो सकी इसीसे उसका सब कार्य रुका रहा । मैं उनको बार-बार लिखता रहा कि जीवनका कोई भरोसा नहीं है । हम दोनों ही वयोवृद्ध हो चुके हैं यदि हम लोगोंके रहते हुए गोम्मटसारकी मूल कन्नड टीकाका प्रकाशन नही हुआ तो फिर इसका प्रकाशन नहीं हो सकेगा । किन्तु डॉ. उपाध्ये तो सम्पादन कलाके आचार थे । जबतक उनका मन न भरे तबतक वह कैसे उस कार्यमें आगे बढ़ सकते थे । जब उन्हें कोई ऐसा व्यक्ति नही मिला तो उन्होने स्वय इस कार्यको हाये लिया मौर मुझे अनुवाद कार्य करते रहनेकी प्रेरणा की । उनका सुझाव था कि मैं कार्वत लगाकर बालपेनसे अनुवाद की दो प्रतियाँ तैयार करू। एक प्रति हम अपने पास रखेंगे और एक प्रेसमें दे देंगे । तदनुसार मैंने कार्बन लगाकर अनुवादको दो प्रतियाँ तैयार की । अन्तिम बार उनसे दिल्‍लीमें भेंट हुई । तब बोले थे कि अब मैं मैसूर विश्वविद्यालयसे अवकाश ग्रहण कर रहा हूँ । उसके पश्चात्‌ हम मिलकर इसका सम्पादन करेगे, मैं कनड़ी देखेँगा आप सस्क्ृत देखना । इस तरह दोनोंका मिलान करके इसे प्रेसमें देंगे । किन्तु उन्होंने तो जीवनसे ही अवकाश ले लिया और उसके प्रकाशनका सब भार मेरे ऊपर आ गया । हिन्दी अनुवाद तैयार था किन्तु कनड़ी भाषा मेरे लिए काला अक्षर भैस बराबर थी । डॉ. उपाध्ये इसका प्रकाशन जीवराज ग्रन्थमाला छोलापुरसे करना चाहते थे । उनके स्वर्गत हो जानेके पश्चात्‌ ग्रन्थमालाके मन्त्री सेठ बालचन्द देवचन्द शाहकी प्रेरणा और पूज्य आचार्य श्री समन्तभद्रजी महाराजके आदेशसे प्रन्थमाला सम्पादनका भार भी मुझे ही वहन करना पड़ा तो कन्तड़ टोकाके प्रकाशन- पर विचार हुभा । जीवराज प्रन्थमालाने डँ. उपाध्येके समस्त लेखोंका एक संकलन प्रकाशित करनेका भार लिया अतः उसे अपने सोमित साधनोंते गोम्मटसारकी कन्नड़ टीकाके प्रकाशनका भार लेना कठिन प्रतीत हुआ । उसी समय बाहुबली { कुम्मोज ) में उपस्थित विद्वानोके सम्मुख जब कन्नड टीकाके प्रकाशनकी बात आयी तो सबका यही फहना था कि उसे कौन समझ सकेगा । अतः उसके साथमे उसका संस्कृत लूपान्तर देनेका भी विचार हुआ । हसते प्रन्थका परिमण दूना हो गया । भौर व्यय-मार भी बढ गया । आचार्य महाराज आदिकी भावना हुई कि भारतीय ज्ञानपोठ इसके प्रकारानका उत्तरदायित्व लेवे। मैं उसको मूतिदेवौ ग्रन्थमालाका भो सम्पादक हँ । अतः मने तत्काल भारतीय ज्ञानपोठके मन्त्री बाद लक्ष्मीचन्द्रजीको लिखा । उनको तारसे स्वीकृति प्राप्त हुह और इस तरह भा स्तीय ज्ञानपीठके सन्मति मुद्रणाख्यसे इसका प्रकाशन कार्य प्रारम्भ हुआ । कन्नड़ भाषाके नागराक्षरोंका कम्पोजिंग उत्तर भारतमें कैसे हो सकेगा, प्रूफ देखनेकी व्यवस्था कंसे हो सकेगी ये सब चिन्ता करनेवाला ग एकाकी व्यक्ति था । किन्तु सन्मति मुद्रणार्यके व्यवस्थापक, प्रफनिरीक्षक ओर कुश कम्पोजीटर श्री महावीर प्रसादने मेरी सब चिन्ताएं दूर करदी। और मुद्रण कार्य बिना किसी बाधाके चालू है ।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now