वीर शासन के प्रभावक आचार्य | Veer Prashasan ke Prabhavak Aacharya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
283
श्रेणी :
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कस्तूरचंद कासलीवाल - Kasturchand Kasleeval
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विद्याधर जोहरापुरकर- Vidyadhar Joharapurkar
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भाग समेश लिया जाता है. निस्त यहं अदी भूखा गिम कि चै उदाहरण निरन्तरं
भोगोपनोगों में आसक्रत' सासाल्य लोगों के किए पक धर्वाः भिन्त आत्महितकारी আব
का दद्य कति है +
राजसम्मानं
कैन जाचा्ौ की विभिन्न लोकहितकारी प्रवृत्तियों से प्रसागित होकर अनेक
राजाओं ने समय-समय पर उनके उपदेश सुनें तथा दानों हारां उनके ज्ञानप्रस्तारादि
कार्यों में सक्रिय सहयोग दिया । राजा श्रेणिक भौर अजातशत्रु द्वारा गौतम और भष
के सम्मान की कथाएँ पुराणप्रसिद्ध हैं। चन्द्रगृप्त ने भद्रवाहु से और सम्प्रति ने सुहस्ति
से धर्मकायों की प्रेरणा प्राप्त को । शक राजाओं ने कालक के अनुरोध पर अत्याचारौ
गर्दभिल्ल का नाश किया । सातवाहन कुल के राजाओं मे कालक और पादलिप्त का
सम्मान किया। विक्रमादित्य सिद्धसेन से और दुविनीत पृज्यपाद से प्रभावित थे । ग्रंगव॑श-
स्थापक माधववर्मा सिहनन्दि के दिव्य थे। इनके बंशजों ने भी वीरदेंब आदि भनेक
आचार्यों को दानादि से सम्मानित किया। चासुक्य वंश के राजाओं ने जिनमन्दि,
प्रभाचन्द्र, रविकीति आदि के धर्मकार्यों में सहयोग दिया । हर्ष राजा की सभा में मान-
तुग सम्मानित हुए। राष्ट्रकूट वंश के राजाओं की सभाओं में अकलंकदेव, जिनसेन,
उग्मरादित्य आदि को वाणी मुखरित हुई। कर्णाटक में होयसरू वंश तथा शुजरात भें
चौलुक्य वंश का समय शिल्प और साहित्य की समृद्धि से परिपूर्ण रहा, इस काल के
आचार्यों के उल्लेखों को संख्या सैकड़ो में पहुँचती है ।
वादविजय
प्राचीन भारत के विभिन्न धामिक् सम्प्रदायों ने अपने-अपने मत के समर्थन और
अन्य मतों के खण्डन के लिए त्कशास्त्र का व्यापक उपयोग किया | ऐसे वादविज्ञाद तब
विशेष महत्त्वपूर्ण हुए जब विभिन्न राजाओं की सभाओं में संस्कृत को प्रतिष्ठा मिली |
जैन दर्शन अपने आपमें वाद को महत्त्व नही देता--उसका उद्देश्य तो विभिन्न वादों में
यथार्थं तत्त्वज्ञान द्वारा संवाद स्थापित करना है। किन्तु अन्य सस्प्रदायों द्वारा बाद में
विजय को सामाजिक लाभ का साधन बनाया गया तब समाज-गौरब की रक्षा के लिए
আনছনক্ होने पर जैन आचार्यों ने भी वादसभाओं में भाग लिया कौर इसमें उन्हें
सफलता भी अच्छी मिलो । समन््तभद्ब, सिद्धसेत, मल्लवादी, अकलंक, हरिभद्र, विद्या-
नम्द, बादिराज, प्र माचन्द, शान्तिसूरि, देवसरि आदि को जीवनकथाओं से यह् स्पष्ट
होता है ।
शिल्पसमृद्धि
बीतराग भाव की साधना जैन परम्परा का कृद्य रहा हैं। सुशिक्षित और
अशिक्षित दोनों के लिए इस साधना का एक प्रभावी मार्ग हैं जिनबिम्यों का दर्शन ।
इसलिए समय-समय पर आजायों ने जिनमूतियों और मन्दिरों के निर्माण का उपदेश
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