रत्नकरण्डक श्रावकाचार | Ratnakarandk Shraavkachar

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Ratnakarandk Shraavkachar by पन्नालालजी वसंत - Pannalalji Vasant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१४ समन्तभद्र-भारती कारण, उसके भोतर भरी हुई बारूद है उसो प्रकार जोवके चतुर्गतिमे चूमनेका कारण, उसके भीतर विद्यमान रागादिक विकारों भाव हैं। संसार दु खमय है, इस दुःखसे छुटकारा तब तक नही हो सकता जब तक कि मोक्षकी प्राप्ति नही हो जाती । जीव और कर्मरूप पुदूगलका पृथक्‌-पृथक्‌ हो जाना हो मोक्ष कहलाता है । मोक्ष-प्राप्तिक उपायोका वर्णन करते हुए भाचार्योनि सम्यग्दर्शन, सम्यगज्ञान मौर सम्यक्चारित्रकी एकताका वर्णन किया है। जब तक ये तीनो एकसाथ प्रकट नही हो जाते तब तक मोक्षकी प्राप्ति संभव नही हैं। सम्यग्दर्शनादिक आत्माके स्वभाव होनेसे धर्म कहलाते हैं और इसके विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र अधर्म कहलाते हैं । अधर्मसते संसार और धमंसते मोक्ष प्राप्त होता है । अतः मोक्षके अभिलाषी जीवोको सम्यग्दर्शन गौर सम्यकचारित्ररूप धर्मका आश्रय लेना चाहिये। यहाँ तीनोके स्वरूप- पर प्रकाश डाला जाता है । अनुधोगोंके अनुसार सम्यग्दर्शनके विविध लक्षण--- जैनागम प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग ओर द्रव्यानुयोगके भेदसे चार प्रकारका है। इन अनुयोगोमे विभिन्न दृष्टिकोणोसे सम्यग्दर्शंनके स्वरूपकी चर्चा की गई है। प्रथमानुयोग भौर चरणानुयोगमे सम्यण्दर्शनका स्वरूप प्राय हस प्रकार बताया गया है कि परमार्थ देव-शास्त्र-गुरुका तीन मूढहताओं और आठ मदोसे रहित तथा आठ अज्भोसे सहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन हैं। वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशोी व्यक्ति देव कहलाता है। ज॑नागममें अरह॒न्त और सिद्धपरमेष्टीकी देवसंज्ञा है। वीतराग सर्वज्ञ- देवकी दिग्यघ्वनिसे अवतीर्णं तथा गणवरादिक आचायेकि द्वारा गुम्फित आगम शास्त्र कहलाता हैं और विषयोकी आशासे रहित नि्रन्य-निष्परिग्रह एवं ज्ञानध्यान और तपमें लीन साधु गुरु कहलाते है । हमारा प्रयोजन मोक्ष है, उसकी प्राप्ति इन्ही देव, शास्त्र, गुरुके आश्रयसे हो सकती है । अत. इनको दृढ प्रतोति करना सम्यग्दर्शन है । भय, आशा, स्नेह या छोमके वशीभूत होकर कभी भी कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरुओको प्रतीति नही करना चाहिए । द्रव्यानुयोगमें प्रमुखतासे द्रव्य, गुण, पर्याय अथवा जीव, अजीव, आख्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा ओर मोक्ष इन सात तत्त्वों एवं पुष्य पाप सहित नौ पदार्थोकी चर्चा आतो है अत. द्रव्यानुयोवम सम्यग्दर्शनका लक्षण तत्त्वाथंश्रद्धानको* बताया गया हे । तत्त्वकूप १. গজাল परमा थनिामाप्तागमतपोरुताम्‌ 1 ्रिमृष्ापोदमष्टङ्ग सम्यग्द्शनमस्मयम्‌ ॥ र० প্রাণ अत्तागमतच्चाण सद्ददण सुणिम्मल होड । संकादोसरदियं न सम्मत्त समुणेयव्व | ६ ॥ वसुनन्दि० २, तरवाथश्रद्धान सम्यथग्दशनम्‌' । त० सू०




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