रत्नाकरण्ड-श्रावकाचार | Ratnkarand Shravakachar

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Ratnkarand Shravakachar  by पन्नालालजी वसंत - Pannalalji Vasant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथम परिच्द्ेद | ৮ धर्म का स्वरूप सद्‌ दशटक्ञानृतानि धमं धर्मेश्रा विदुः । यदीयप्रस्यनी कानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥ अन्वयाथ--(धर्मेश्वरा:) धंम के ईशार-जिनेन्द्र भगवान, (सददृष्टिज्ञानतरत्ताति) सम्यन्दशन, सम्यसक्षान शोर सम्य- क्चारित्र को (धर्मम्‌) धम विदुः) कते हैँ । (यदौयप्रत्यनी कानि) जिनके उ तर मिथ्याद्रान, मिथ्याज्ञान ओर मिथ्याचारित्र को अधम कहते हैं ओर ये (सवपद्धतिः) संसार के मार्ग (भवन्ति) होते हैं । कठिनशब्दाय --सम्थर्दंशन--सच्चे देव, शाख भौर गुरू का भद्धान करना । सेम्प्रस्न--जों सम्यग्दशन सद्दित हो और पदार्थ को न्‍यों का তথা जाने + सम्यक्तारित्र-्स्संतार के कारण रूप पांचों पापों का ह्याग करना : भावाथ --सम्यग्दशन, सम्यभान श्रौर सम्यक्चारित्र धर्म कहलाते हैं। ये तीनों एक साथ मिलकर मो्त के मार्ग हैं। इनसे उलटे मिथ्यादशन श्रादि अधर्म करलाते हैं श्रोर ये संसार के मार्ग हैं ॥३॥ सम्यग्द्शन का लचण भ्रद्धान परमार्थानामाप्तागमतपोभृतामस । त्रिवृद्ापोढमष्टांग सम्यस्दशनमस्मयम्‌ ॥४॥ अन्वयाथ--(परमार्थानाम) सच्चे (भाप्तागमतपोभृताम्‌) देव, शास्त्र ओर गुरुओं का (जिमूढापोढम) तीन मूढ़ता रहित, (भङ्गम्‌) आठ शङ्क सहितं शरोर (अस्मंयम) मद रहित




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