परमाध्यात्म तरंगिणी | Pramadhyatam Trangini

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Pramadhyatam Trangini  by पंडित कमलकुमार जैन शास्त्री -Pt. Kamalkumar Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| १५ ) बार में चला जाता है। किसी को किचित्‌ परिश्रम मात्र से सब साधंन-सामग्री सुलभ हो जाती है और किसी को बहुत चेष्टा करने पर भी प्राप्त नहीं होती । इन सब बातों से कर्म की विचित्रता मालूम होती है। जीव जिस प्रकार के अच्छे-बुरे परिणाम करता है, उसके अनुसार ही उसके कर्म-सम्बन्ध होता है । और, कर्म के माध्यम से वैसा ही फल कालान्तर में उसको मिलता है। दोष कम का नहीं, हमारा ही है | कर्म तो मात्र एक साध्यम है। यह जीव जैसा बीज बोता है, वैसा ही फल इसको प्राप्त होता है । यद्यपि इस जीव की कमें के संयोग से उपरोक्त प्रकार की विभिन्न व विचित्र अवस्थाएँ हो रही हैं, तथापि इसका मूल स्वभाव, इन सब परिवतंनों-विकारों से अछूता बना हुआ है। उस चैतन्य को, अपने मौलिक स्वभाव को हम कैसे पहचाने ? इसके लिए हमें वस्तुस्वरूप को तनिक गहराई से समझना होगा । অন্তু: सामान्य विशेषात्मक : प्रत्येक वस्तु, चाहे वह चेतन हो या अचेतन, सामान्यविश्येषात्मक है। सामान्य” और 'विशेंष' ये दोनों ही वस्तु के गुणधर्म हैं, अथवा कह सकते हैं कि :-- ५. वस्तु = सामान्य + विन्लेष । পু 'सामान्य' वस्तु की वह्‌ मौलिकता है जो कभो नहीं बदलती जबकि वस्तु की जिस समयजो अवस्था है वही उसका विशेष है । वस्तु की अवस्थाएँ बदलती रहती हैँ । मान लीजिए कि सोनेका एक मुकूट था, फिर उसको तुवा कर हयार अनवा लिया गया, कालान्तर में हार को तुडवा कर कंगन बनवा लिया गया--अवस्थाएँ तो बदली, परन्तु सोना सोनेूप से कायम रहा 1 इस उदाहरण में मृक्रुट, हार, कंगन आदि तो विशेष हैँ जबकि स्वणेत्व सामान्य है । अवस्थां तो नाशवान हैं परन्तु वस्तु की मौलिकता या वस्तुस्वभाव अविनाशी है, शाइवत है, ध्रुव है। इसी प्रकार एक बालक किशोर-अवस्था को प्राप्त होता है, फिर कालक्रमानुसार किशोर से युवा, युवा से प्रौढ़, और प्रोढ़ से वृद्ध होता है। बालक, किशोर आदि अवस्थाएँ तो बदल रही हैं, परन्तु मनुष्य मनुष्यरूप से कायम है। अवस्थाओं या विक्ेषों कै परिवत्तित होते हृए भी उन सब विशेषो में मनुष्यत्व सामान्य ज्यों का त्यों है। यही बात पौद्गलिक वस्तुओं के सम्बन्ध में है--जैसे दूध को जमा कर दही बनाया गया, दही को बिलोकर मक्खन, ओर मक्खन को गमं करके घी बनाया गया । यहाँ दूध, दही आदि सब अवस्थाओं में गोरसपना एक रूप से विद्यमान है। अथवा, जैसे पुदूगल की वृक्ष-स्कंध रूप एक अवस्था थी, वहू काट डाला गया तो लकड़ी रूप अवस्था में परिणत हुआ; फिर वह लकड़ी जलकर कोयला हो गई और फिर वह कोयला भी धीरे-धीरे राख में बदल गया, परन्तु पुदूगल पदार्थ पुदूगल रूप से अभी भी कायम है। अब चेतन पदार्थ का एक और उदाहरण देते हैं। एक मनुष्य मर कर देव हो गया, वह देव संक्लेशभाव से मरा तो पशु हो गया, पशु से पुनः मनुष्य पर्याय प्राप्त की। अवस्थाएँ तो बदलीं परन्तु जीवात्मा बही-को-बही है।




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