जनक और याज्ञवल्क्य | Janak Aur Yagyvalkya

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Janak Aur Yagyvalkya by श्री शंकराचार्य - Shri Shankaracharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ছি8০ ১8, 84০৪৬৪৫৪৬৪০ 8:3-এ,৫. শি हे ही 6 | (१५ ) जीवात्मा और परमात्माके स्वरूपमें कोई मेद नदय | है। यद्यपि संसारदशामें आत्मा हृपेशोकसम्पन्त क्लेश- तापपीडित और संसाररूप फांसोमें बँधाहुआसा प्रतीत होतां,है, परन्तु वास्तवमें आत्मा विषयोंसे विल्ग है| , जीवको जाग्रत्‌, स्वम श्चौर ुपुम्ति अवस्थाओंको हम नित्य ही देखते हैं । इन अचपस्थाओं पर ध्यान दे कर विचार करनेसे आत्मोके चात्तविक स्थवरूपका निश्चय: किया जा सकता है, इस ही अभिप्रायसे उपनिषदोंस जहां तहां इन तीनों अवस्थाओंका वर्णन किया है, अतः हम मी यहाँ इस विषयमें कुछ आलोचना करना उचित £ खममते दै । जायत्‌ अवस्था ही जीव्रकी संखार-्वस्था कहलाती है, इस य वस्थामें इन्दियोके सामने विश्वा । ' परदा उचघड़ा रहता है और शब्द्‌ स्पशं रूप रस | आदि के साथ संबन्ध होनेके कारण आत्मा इन स्थुल विषयों को लेकर क्रौड़ा किया करता है, भात्मा विषये सर्वधा ठका ह्वा और सर्वधा विषयोंके -वकश्ीमूत रहता दै । ये स्थूल निषय इन्द्रियोंके সাগর क्रियाको खड़ी करके आत्मामें कितने ही अनु- प्रयशो उस्पन्न कर देते है, इस दी रीतिसे विषथका प्रत्यक्ष होता है, परन्तु इन अवस्थाओंमं मी आत्मा विषभोंसे विलग रहता है यह घांत अवश्य ही समझ में आजाती हैं| देखो-इन्द्रियके सामने एक विषय झाजाने पर इन्द्रियमें क्रियां होने लगती है, उससे » 5 ही इन्द्रियोंडी मिन्‍न २ क्रियाएँ जागजाती- हैं। इन । | विशेष २ क्रियाओँमें जबतक मनका संयोग नहीं होता, तबतक यह कुछ मी समझें नहीं:आता, कि-ये कहाँसे | झागयीं किसकी कियाएँ हैं और इनका' अचुम्तव ~ न ताद का ऊ क ব্ল টি क्के १




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