परमार्थ पत्रावली | Parmarth Patravali

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Parmarth Patravali by श्री जयदयालजी गोयन्दका - Shri Jaydayal Ji Goyandka

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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परमार्थ-पच्रावली उ०-प्रह बात कर अंशो्में ठोक है परन्तु ऐसा होनेका कारण भक्तिपूवंक भगषत्सस्वन्धी आलोचनाका अभाव है, प्रायः सारा जपत्‌ केवल भौतिकं खुखको ही परम साध्य मानकर उसकी ओर दौड़ रहा है, इस समय जगतकी दृष्टि प्रायः सांसा- रिक विषयोंकों ओर ही छगी हुई है। भोगयोग्य बस्तुओंके सश्चपको ही प्रायः लोगोंने परम पुरुषार्थ-ला मान रक्खा है। इसीले सब प्रकारको चुशइयाँ प्रकर हो रही हैं; जैसे रुपयोंके ोभसे व्यदार बिगड़ जाता है उसी प्रकार विपय-छालूसासे सारे धर्मांचर बिगड़ जाते हैं। यदि ऐसी ही स्थिति बनी रही तो सम्भव भी है कि शायद्‌ कलह और बढ़े | कारण, भौतिक सुखकी प्रवर आकांक्षा मजुष्पकों पशुक्रो संशामें परिणत कर देती है। सभी भोगोंकी ओर दौड़ते हैं, जहाँ भोगपदार्थ होते हैं बहीं एक साथ भपतते हैं।जैंसे किसी कुत्तेके मु हमें रोटी हो या कोई पक्षी मांसका हुकड़ा लिये हुए हो तो प्रायः बहुत-से कुत्ते और पक्षी उनके पीछे पड़ जाते हैं और उनका परस्परं बड़ा इन्द्रयुद्द होता है, जड़चादकों आदर्श मान लेनेका परिणाम भी पभाय; इसो भकार हुआ करता है| इसलिये ऐसे आराम मौज- शौक भादि बिछासिता-सहित संसारकी सारी भोगासक्तिका मनके द्वारा त्याग करना चाहिये। ऐसा होनेसे ही सुख सम्भव है । प्र०-जीव इस स्थितिमें कबतक पड़े रहेंगे यात्री इनका उद्धार कच होगा? {99




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