गुरुकुल - पत्रिका | Gurukul Patrika

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : गुरुकुल - पत्रिका  - Gurukul Patrika

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about भारतभूषण विद्यालंकार -Bharat Bhushan Vidyalankar

Add Infomation AboutBharat Bhushan Vidyalankar

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
गूरुकुल पत्रिका, १६८२ है । विश्व के श्रन्य देश अपनी-अ्रपनी धड़ियों का समय इसी प्रसारित समय के अनुसार सुधार लेते हं । इस प्रकार ग्रीनविच संसार के अन्य देशों के काल का नियसन करता है । इस शून्यांश को बताने वालो देशान्तर रेखा पर अवस्थित कोई भो नभर कालनियमन के केन का कामकर सकता है । सश्राट्‌ विक्रमादित्य के समय जब विक्रमी संबत्‌ प्रारम्भ हुआ था उस समय शृन्थांश क्री देशान्तर रेखा उज्जेन नगर में से होकर गुजरती थो श्रतः उस समय कालके अनुशासन का गौरव इस सम्राट विक्रमादित्य की राजधानी श्रवेगितिनिगर को उपलब्ध था । यहां पर हो भारत का प्रमुख ज्योतिषालय वा ज्योतिषशास्त्र को शिक्षा का प्रमुख संस्थान (महाकाल निकेतन) था श्रौर यह गौरव भारतबर्थ को ब्रिटिश शासकों के आने से पूर्व तक प्राप्त रहा था। महाकथि कालिदास ने इसको “महाकाल निकेतन” के नाम से संस्तुत किया है। श्लोक इस प्रकार है :-- श्रसौ महाकालनिकेतनस्य वततन्नदूरे किल चन्द्रमौलेः । तमिस्रपक्षेऽपि सह प्रियाभि- ज्योत्स्नावतो निर्विशति प्रदोषान्‌ ।'' रध . महा ६-३८ । इसमे स्वयबर के लिए प्राये हुए राजकुमारीं का प्रसश है । स्वथंवर को नायिका राजकुमारी इन्दुमति को उसकी सखी सुनन्दा श्रा५ हए सव राजकुमार) का ऋरमशः परिचय दे रही हं । श्रवाप्ति देश के राजकुमार को लक्ष्य करक यह श्लोक लिखा गया है । सस्त भाषा से अ्रपरिचित पाठकों को सुविधा के लिएु मं हिन्दो भाषामं इसका रूपान्तर प्रस्तुत कर रहा.ह -- “यह्‌ राजकुमार अवन्तिनाथ हं । इनको १४ राजधानी श्रवन्ति वा उज्जन है । यहां पर जगत्‌ प्रसिद्ध महाकाल का निकेतन है । भगवान्‌ सिक भो यहां निवास करत हे । जिनके मस्तक पर न्ट्यि ही चन्द्रदेव विराजमान रहते हं । ्रतएव राजकृमारको कृष्णपक्ष करी श्रंघेरी राजियों में भी चन्द्र आलोक का निरन्तर लाभ उपलब्ध रहा है।” महाकवि कालिदास द्वारा महाकाल निकेतन! के शब्द का इस श्लोक में प्रयोग अथवा भगवान शिव का सान्निध्य यह्‌ सकेत करता है कि महाकाल वा भगवान्‌ शिव एक हो निकतन में रहते हे । दूसरे शब्दों में अभिन्न रूप हे । यह ऐंक्य प्रतिपादन सहाकथि कालिदास ने अपनी एक श्रन्थ रचना मंघ दूँत' में भी किया है-- भ्रप्यन्यस्मिन्‌ जलधर महाकालमासाद्य काले, स्थाततव्यं मे नयनविषयं यावत्पेति मातुः । कुवेन्‌ संध्या बलिपटहुतां शलिनः श्लाघनो यां, अ्रामन्द्राणां फलमविकलं लप्स्यसे गजजितानाम्‌ ।। यह प्रसंग जलधर को यात्रा काह । एक यक्ञ नौ माह से प्रवास दण्ड भोग रहा है । श्रभौ उसे चार मास और इसौ प्रवास मे व्यतीत करने हे । वह विरह व्यथा से व्याकुल है। अपने प्रवास स्थल रामगिरि श्राश्रम की एक पर्णकुटोर मं बेठे-बठे आयाद़ प्यस श्रा गया । सास की पहली तिथि को हो एक श्थसवर्ण मेंघ उसे आकाश मं उड़ता हुआ। दिखागी दिया । पवन प्रवाहित संघ उत्तर विशा को ओर उड़ा जा रहा था जिधर उ..की हिमालयवर्तो नगरो अ्रलकापुरो विद्यमान है । जहां पर उसकी प्रिया का वास है। विरही यक्ष व्याकुल हो उठा । मेघ-को! सम्बोधित करते हुए. उसने प्रार्थना की कि-- तुम मेरा संदेश मेरो प्रिया तक पहुंचा दो । फिर मागं की चर्चा करते हुए उसने मेघ से आग्रह किया ।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now