स्वतंत्रता की बलिदेवी | Shwtantrta Ki Balidevi Per
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
106
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१५
सागर, नदी, सरो, भरनो मे रन्हं दरढना मैंने चाहा;
मंदिर, तीथं, मले में हृद्य ; इहा भ्रमु को भसादोमे
कथा-भागवत, सत्संगों में, भाषण, प्रवचन, उपदेक्षों में,
हूढ़-हू ढकर थकी उन्हें मैं कीतत, गीतों, संवादों मे
कितू, कहीं भी उन्हें व पाया ; पाया उन्हें अंततः मैंते--
वहाँ, जहाँ मानव श्रम करते, दुख सहले, नीरब, जीवन-भर
जहाँ बिताते घोर कप्ट के क्षरा; संघर्षों में जीते हैं
दीन, दलित, शोषित, पीड़ित जब जहाँ घुसा की चोटें खाकर
हो सकती थी सह्य रूढियों के बंदी, निः्ठुर समाज को
पराधीनता कै उस युग में कब विचार-धारा स्वतंत्र यह
श्यामा-जीजी के जीवन का हर क्षण बना कठोर यातना;
पर, बह गई मिखरती प्रति-पल अत्याचार सभीके सह-सह
उन्हें देखकर ठिठके मोहन ; बोले,कर प्रयाम नतमस्तक,--
मुझे न भ्राई याद तुम्हारी ; जीजी, भारी भूल हो गई
हूं ढ़ रहा था मत्रित नालियाँ,छोड़ अमृत का फरना निर्मल ;
क्षमा करो सुम ; आज,न जाने, मेरी सुध-बुध् कहाँ खो गई
दुखी-दरिद्रों, दबे-पिसे, हम छोटे लोगों का बल तुम हो ;
तुमने, सब-कुछ छोड़, हमारी रक्षा, उन्नति का ब्रत लेकर
हमें उठाया, हमें बढ़ाया, सदा हमारी की सहायता ;
मिली मिराशा में है झ्ाशा मुझे तुम्हारे दर्शन पाकर
जीजी, चलो, सेंसालो चलकर, नया भतोजा बाट जोहता ;
कितने बच्चे गँवा चुके हम, शायद रक्षा कर लो इसकी
कुटिया में सामान नहीं है, कैसे इसकी खुशी मन सके ?
झोर बुलाने जाऊं क्रिसको ? नुम्हें छोड़, आशा हो किसकी
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