सर्व हितकारी | Sarv Hitakari

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Sarv Hitakari by देवदत्त शास्त्री - Devdatt Shastri

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पंडित देवदत्त शास्त्री जी का जन्म भारत देश के उत्तर प्रदेश राज्य के कौशांबी जनपद स्थित महेवाघाट क्षेत्रान्तर्गत रानीपुर नामक ग्राम में हुआ था।
इनका गोत्र घृतकौशिक गोत्र था, एवं इनके वंश का नाम कुशहरा था।
यह विद्वान कुल के वंशज सिद्ध हुए क्योंकि इनका कुल पूर्व रुप से ही अत्यंत संस्कृतज्ञ एवं वेदपाठी ब्राह्मण थे, जिनमें पं भवानीदत्त मिश्र, पं देवीदत्त मिश्र, पं शिवदत्त (सिद्ध बाबा) , इनके (देवदत्त शास्त्री)पिता पं ईशदत्त मिश्र और भाई डा. हरिहर प्रसाद मिश्र उल्लेखनीय हैं।

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बुद्धि को “संभाले - + =“ + (गी 7 परमात्मा कौ महती शक्ति सविता को पुक्तरते हए साधक सविता -शक्ति को अपने अन्दर धारण कका ` है3 -उसका कक्ुग्य हो जाता है कि -बह दूसरे को प्रेरणा। दे उसके 'अक्षान को दूर करे । समस्त जनता को -बेद, ईदवर भक्त; जनता-जनाव॑न करा बेवक बनने का यल करे । भारत का सावभौम चक्रवर्ती राज्य.विनबष्ट होने का कारण मानव का सविता शक्ति से परे हट जाना है । {सविता (प्रेरणा) में श्रब भी वह बल है कि म पुन. सार्थमोम राज्य के स्वामी बन सकते हैं । वरेण्यमु--वह प्रभ्‌ सर्वश्रेष्ठ ग्रहों (करने वरने योग्य है। वरेष्यम्‌ कहकर, साधक अपने आपको सविता देव परमात्मा के आगे भेद चढ़ा देता है आत्मसमपंण कर देता है । वरेण्यम्‌ कहते हौ श्रोष्ठ बन्द हो जाते -हैं। अब बोलने का कार्य नहीं रहा । उसी कौ आज्ञा पालन में तन-मन लगेगा । वरेण्यमू की भावना तशी पूर्ण होगी जब सर्वस्व ईश्वर के अप॑ ण कर दिया । इषे हम प्रभु सभपंण, ईश्वर प्रणिधान, शरणागति य। अनन्य -भक्ति कहते ই। भगे - वहु शुद्ध स्वल्प है । पापो का दहन करनेवाना भूननेवाला है। यह केवल परमात्मा का ही गुण है। यदि पावों का ताश कर भ्रानन्द खाना है तो उसो की शरण जाना होगा । भः परमात्मा का अतिश्रेष्ठ, प्रतिशुद्ध निमेल पापविनाशक शक्ति है यह तभी प्राप्त होगी जब आहार, आचार-विचार सत्य नियमित हो। जावन तपोमय हो, सम्यक्‌ ज्ञान द्वारा बुद्धि ऋतम्भरा, प्रज्ञा बत जाय, शरोर तन-मन ब्रह्मच्यमय हो । साधक को पाप द्ध करने हेतु परमात्मा कौ भग शक्ति का कुछ अश अपने अन्दर लाना होगा । देवस्य--जो चर अवर को प्रकाशित करे, देनेवालाहो वह देव कटुलाता है । परमात्मा सारे सुखो आनन्दो को देनेवाला, सब देवोका देव, विद्वान का विद्वान्‌, दाताभ्रो का दाता है। ३३ देवता होते हैं-- आठ वधु--अग्नि, पृथ्वो, वाबु, अन्तरिक्ष, आदित्य, थो, चन्द्रमा, नक्षत्र । इन्हे वमु इसलिये कहते है किं ये सव निवासत करने के स्थान हैं । ग्यारह रुद्र-प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाग, कूमे, कृक्ल, देवदत्त, धनञ्जय, जीवात्मा । रद्र इन्द इसलिए कहते है 7 जव शरीर से निकलते हैं सम्बन्धियों को रुलाते हैं । बारह आदित्य बारह महोने-ये सारे जगत्‌ के पदार्थों का आदान सबकी आयु को ग्रहण करते है इसलिए इन्हें आदित्य कहते हैं । एक इन्द्र, एक प्रजापति--इस प्रकार ३३ देव हुये इन सबको वश में रखनेवाला देवों का देव महादेव परमात्मा है उसी की उपासना से चिरस्थायी श्रानन्द प्राप्त होगा । धीमहि--दिव्य नेत्रो से सत्यस्वरूप का ध्यान धी कृहलता है। किसी वस्तु में प्रनुराग से युक्त होने का नाम ध्यान है। गायत्री मन्त्र में ध्येय विषय परमात्मा का तो रूप है प्रभु का प्रकाश है, नरच्तर उसी वृत्ति को टिकाये रखना है। मत का निविषिय हो जाना ध्यान है। शीमहि योग की निरुद्ध अवस्था तक पहुंचने का आदेश भी देता है और साधन भी बताता है। साधन-परमात्मा का भगे पाप दग्ध करनेवाला तेज है उसका दिव्यनेन्नों से ध्यान करना है। जो उस तेज का ध्यान करता है उसकी बुद्धि की मलिनता दूर हो जाती है। धियो यो नः प्रचोदयात्‌ -भन्त.करण शुद्ध होने पर आशीर्वाद मिलने लगता है। अन्तमें गायत्री मन्त्र मे साधक मांगता है हमारी : “ुद्धियों को अपनी ओर ले चलो ऐसी प्रेरणा करो कि हम इधर-उधर न ` जाकर प्रभू की ओर चले, हम बुरे कर्मो से पृथक्‌ रहँ धमं, अथे, काम, मोक्ष की ओर प्रवृत्त हों । जिस प्रकार सारे संसार को बनानेवाला परमात्मा अपनी सविता शक्ति से सूये, चन्द, जल, वायं अदिकोप्रेरणादेताहै उसो प्रकार अनुध्य में मत भी एक ऐसी ही सविता शक्ति है । जब इस मन को आनन्ददाता सविता देव प्रभु के साथ जोड़ दिया जाता है तो वह प्रेरणा, दिव्य प्रकाश मिलता है जिससप्रे बुद्धि कर्म एक होकर जीवन में माधुय॑ आर्त होता दहै । ৮ १४ जनवरों, १६९५ 1 मनुष्य प्रकृति से लाभ उठाता हुआ उसमें न फंसता हुआ उसे केवल साधन मात्र बनाकर परमात्मा तक पहुच सकता है । ऋषि-प्रुनियों, तपस्वियो ने समाधि भवध्या की प्रयोगशाला मे वर्षो बैठकर जो साद तथ्य निकाले थे वे सूर्य की भाति सत्य हैं। उन पर आचरण करने से हम सच्चे मानव बतकर लोक परलोक दोनों को सुधार सकते हैं। अत: गायत्री मन्त्र का अथे हुआ -हे रक्षक, प्राणाधार, दुखों को दूर करनेवाले मुखदाता तेरे ग्रहण करते योग्य, पापनाशक तेज का हम ध्यान घरते हैं जो आनन्द का देनेवाला और जन्मदाता है। हमारी बुद्धि कमं को प्रभ प्रेरणा देकर अपनी ओर ले चलो । इस प्रकार गायत्री मन्त्र में एक ही प्रार्थना की गई है-हमारी बुद्धि प्रभु की ओर प्रेरित हो । इस बुद्धि का हो जीवन में सब खेल है। एक सौदागर के ३ बेटे थे। उसने उनको परीक्षा कर एक को अपना उत्तराधिकारी षनान। चाहा । वुद्धि प्रोक्षण के लिये उपने तनँ को अपने पास बुलाकर सौ-सौ रुपये दिये ओर कहा जाग्र इने कोई वस्तु खरीद र अपने-अपने कमरे को भर दो किन्तु ध्यान रहै कि पैसा कम से कम खर्च हो। पहले लड़के ते ५०) का भूषा लेकर अपना कमरा भर लिया । दूसरे लडके ने थोड़ो राशि बचाकर शेष से खराब रूई खरीदकर कमरे को भर लिया। तोसरे लडके ने कोई सामान नहीं खरीदकर अपने कमरे मे दीपक जलाकर फर्श पर बेठ गया । तोनों पुत्रों ने पिता से कहलवाया कि उन्होने अपने-प्रयने कमरों को भर लिया है। आप देख परीक्षा करें। शाम को पिता गया। बड़े लडके के कमरे पर पहुंचा । लडके ने पिता को आता देख स्वागत किया और कहा - पिताजी देखो मैंने केवल ५०) ही व्यय किया बढ़ो समझदारी से व्यप किया है और कमरा भर दिया है। पिता चुत रहा । अब वह दूसरे लड़के के कमरे मे गया उसने बताया पिता जी मैंने थोडो अकल से क्राम लिया है और केवल ६०) रुपया खच करके कमरे को भर दिया है ४०) वचा लिये है। पिता ने कुछ न कहा किन्तु मत हो मन इनकी बुद्धि पर दुखित हुआ । अब वह छोटे बेटे के कमरे प रहुचा उसका कमरा बिल्कुल खालो था | एक दिया जल रहा था आर वह फर्श र बेठा था। बेटे ने वाप * को स्वागत के साथ विठाया। वाप ने पूछा-क्या तुम्हें ईट पत्यर कुछ भी नही मिला । वेटे ने कहा-पिता जी देखो मैने प्रापको आज्ञानुप्तार बहुत कम मात्र १-२ रुपये में सम्पूर्ण कमरे को प्रकाश से भर दिया है। सबसे छोटे बेटे को अपने हृदय से ला लिया और कहा कि तू ही सच- मुच मेरा उत्तराधिकारी है । अस्तु जहा बुद्धि है वहा सब कुछ है। गायत्री मन्त्र से जो श्रेष्ठ बुद्धि मिलतों है उससे लोक परलोक दोनो सुधरते हैं। र्ज (हितोपदेशक से साभार) मुस्लिम युवती वईसाई युवक हिंदू धर्म में कानपुर-आर्यसमाज मन्दिर गोविन्द नगर में आयेसमाज व केन्द्रीय आये सभा के प्रधान श्री देवीदाव आये ने एक ३० वर्षोाय शिक्षित मुस्लिम युवती कु० शमीम तथा एक शिक्षित ईमाई युवक रिचई को उनकी इच्छानुसार वेदिक धमे को दीक्षा देकर हिन्दू धर्म में प्रवेश कराया । इनके नये লাল मीना कुमारी व रघधुवीरप्रसाद रखे । श्री देवीदास आये ने शुद्धि सस्कार के बाद मोना कुमारी का विवाह शिक्षित सरकारी कर्मदारी श्रा योगेण कुमार्‌ तथा श्री रवुत्रीर प्रसाद का विवाह कु० नेहा से बेदिक रात से कराया | ये सभी लोग स्नातक तक शिक्षित हैं । विवाह के पश्चात्‌ मीना कुमारी ने बताया कि उनको हिन्दू धर्म की यह बात पसन्द है जिसमें वर-वधू आजोवन दु.ख-मुख मे एक साथ रहने का सकतप लेते हैं। जबकि श्रन्य मजहबो में तनाक की স্সাম बीमारी है। रघुवीरप्रसाद ने बताया कि उनके बुजुर्गों ने धर्म बदलने का जो पाप किया था उसको मैंते आज पृण्य में बदल दिया। श्री आये ने दोनों को हिन्दों साहित्य व सत्याथंप्रकाश को प्रतिया स्वाध्याय हेतु दों। जिससे वेदिक धर्म को विशेषताए ज्ञान हो सके । बालगोविन्द प्रायं मन्त्री आयसमाज गोविन्द नगर कानपुर




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