अर्थ परमात्मदर्शन | Arth Parmatma Darshan

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Arth Parmatma Darshan by मुनि बुद्धिसागर - Muni Buddhisagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ঘইলাংল दंशने । (७) जेंणे मिथ्यालनों नाश करी सम्यत्तवन्नु दान आप्युं, एवा सहगुरु- नो कदापि कार उपक्रार वाय्वा कोह समथ नथी, धमनी श्रद्धा करावनार धर्मगुरुए अनंत जन्म मरणनां दुःख टाना, तेमनो उपकार क्षण पण वीसराय तेम नथी, भरी प्रदी राजाने प्रतिवोधक केशी गणधर सदश আহহ जाणवा, प्रदेश्ी राजा विल्कुरु नास्तिक इतो तेतं इत्तात कये, श्वेतांविका नाश्नी नगरीमां परदेशी राजा राञ्य करतो इतो ते नगरीना मृगवन नामना उयानमां केशीङ्गम।र साधु परिवार परि- वयौ, समवस्या, धार्मिक नागरिक जनो भगवानने वंदनार्थै अ(- वा लाग्या, गुरुए देशना आरंभी, ते अवसरे कांबोज देशथी अश्वो आव्या छे तेती परीक्षाने माटे चित्र सारथीए राजाने वि- नव्यो, चित्रे रथ जोड्यो, लांत्रा बखत सुधी अशो दोडाव्या, অন্নী যান্গঘা त्यारे सगयसूचक चित्रे राजाने विनव्युं के स्वामिन्‌ अम्वोने विश्रांति मादे हक्षनी छायामां वेसाइबा जोइए एम कही राजा सह चित्रसारथि मगवनमां आव्यो, त्यां आचाय देशना देता हता त्यां जेब आचायेनी शब्दध्वनि संभझाय तेम आसन्न मुकाम कर्या, परदेशी राजाए भव्य जनोने उपदेश देता एवा केशी गणधरने दीठा, राजाएं मनमां चितव्यूं के अरे आ मृढ शु बोलतो हशे, অনি अग्रस्थित एवा मढ मनुष्यों शु सांभठता हशे अहों खरेखर वक्ता अने श्रोताओ जड छ; एम मनमां विचारी राजाए चित्रसारथी प्राति कह्ठुं- प्रदेशी-अरे सारथी! आ जगत्‌थी विचिन्न वेषधारक कोण दशे! अनेतेशु वके ञे!




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