हिन्दी खंड काव्यो का अध्धयन | Hindi Khand Kaavyon Ka Addhyayan

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Hindi Khand Kaavyon Ka Addhyayan by माताप्रसाद गुप्त - Mataprasad Gupta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कान्यकोटि ही निर्धारित ङौ मयी । भतः यह अनुमान किया जा सकता है कि भाभह और दण्डी आदि के समय में महाकाव्य के इस लघु रूप की स्वतंत्र काव्य कोटि के হু में कल्पना नहीं हो पाई थी । भाभह - दण्डी ने महाकाव्य के लक्षणा बताने के बाद यह व्यवस्थय दी हैं कि यदि कोई कृति महाकाव्य के निर्दिष्ट अंगों की दुष्टि से हौन दोते हुए भी विज्ञ पुरूष के रसास्वादन में समर्थ है तो उस कृति को दुचित न मानता चाहिए | इस प्रकार दंडी के अनुसार महाकाव्य के सम्पूर्ण लक्षण्णों का सम्यक निर्वाह न होने पर भी कौई रचना महाकाव्य का पद पा सकती है कितआचार्य विश्वनाथ ने इस कंयवस्था के विपरीत महाकाव्य के लक्षणों का पूर्ण निर्वाह न करने कलनवि वली कृतियौ को महाकाव्य की संज्ञा देना उचित ने समाग । उन्होंने महा काव्य के लक्षण्य' देने के बाद इस प्रकार की कृतियाँ की भिन्न काव्य-कोटियां नि- धरति कर दीं | महाकाज्य की पद्धाति पर रबी गईं वे कृतियां जिनमें सर्ग और साम्धि पंचक के बंधन को पूर्णतः स्वीकार नहीं किया गया और जिनमें एक अर्थ या पसग कौ प्रतवनता थी उन्हें काव्य(या एकार्थं काव्य) कौ कौटि प्रदान की गई । इसी प्रकार काव्य के एकदेश(या एक अंश) का अनुसरणा करने वाली कृतियाँ कौ सण्डकाव्य का पद दिया गया ।। दण्डी के यंग में ऐसे काव्यों की संख्या कदाचित अधिक नहीं थी अतः नियमों के परिपालन के प्रति वे उतने सजग नहीं जान पड़ते किन्तु आचार्यं विश्वनाथ के काल तक ऐसी रचनामों की संख्या संभवतः पर्माप्त हो गयी थी । जो महाकाव्य के रूपमे सिष्ठो जाने पर भी महाकाव्य के सभी लक्षणों का प्रतिपालन नहीं करती ধাঁ । संस्कृत के अतिरिक्तं प्राकृत और अपभ्रंश की रचनाएं भी उनके सामने रही दॉगी ¢= न्यून मप्यत्र दैः डेशिचिदगिः काव्यं न दुष्यति यव्पात्तेव- सम्पत्तिराराधयति तद्विदः । 1-र्दंडीः कान्यादर्श ६। ६ ~ भाष विभाष ण -नियमात्काग्यं सर्म पपुल्मितम्‌ एकार्थं प्रवण्नैः पथैः सन्धि सामगरृय वर्जितमैं बण्डकाग्यं मेवत कान्यस्य एक्देशानसारि च कोषः शलोक समूहस्तु स्या दन्य न पक्षकः ।। विश्वनाथःसाहित्य दर्षेण ३९६ ২২৭




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