रेडियो संग्रह | Redio Sangrah

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Redio Sangrah  by हजारीप्रसाद द्विवेदी - Hajariprasad Dwivedi

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हजारीप्रसाद द्विवेदी (19 अगस्त 1907 - 19 मई 1979) हिन्दी निबन्धकार, आलोचक और उपन्यासकार थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म श्रावण शुक्ल एकादशी संवत् 1964 तदनुसार 19 अगस्त 1907 ई० को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के 'आरत दुबे का छपरा', ओझवलिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री अनमोल द्विवेदी और माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। इनके पिता पं॰ अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। द्विवेदी जी के बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था।

द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई। उन्होंने 1920 में वसरियापुर के मिडिल स्कूल स

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सुखी ध्यक्तिजीवन का हो नहीं, एक सुसी समाज का भो। बहुत से लोग इस पर हँसते है और व्यग्य करते है, वयोक्ति असमिया कसी की चोज का लोभ नक्‍रने का अर्थ यह भी छग्राते है कवि मे मेहनत क्यो रखे ? असम के प्नेकों चाय बगानों से लाखों सजदूर काम करते हैं, उनमे दर्जनों प्रदेशों ओर जातियो के लोग मिल जायेंगे, लेक्नि असमिया लगभग नहीं मिलेंगे। कहा जा सकता है कि वहाँ मजदूरी की दर बहुत कम्त है, लेकिन युद्धकाल में जब और कोई ध्यदसाय ही महीं था, और মালা ঈ मजदूरी अधिक न होने पर भी सुविधाएं अनेक थीं जो श्रन्यन्न अच्छी नौकरी बालो को भीन मिलती, तब भी स्थिति मे कोह परिवर्तन नहीं हुआ था। आर उन्दी दिनों सडक बनाने के जो महत्‌ श्रायोजन क्यि गये थे, उनसे भी वगान विहार उसा कौ तो बात ही क्‍या, दुक्तिण के मलाबारी और परिचमोत्तर के पठान तू आये, मगर असमिया नहीं । किसी ने मुझे कहा था, यहां घरेलू नाकर है नेपानी या बयग्ानी, मज़दूर बिहारी या मंद्रासी, छोटे काम करने धाले पादी या रिरि गिरिजन गारो, नित्रिर, मीरी, इत्यादि । सच्चा श्रसमिया तो बस पान खाता है, हँसता है, नामघर में कीर्तन करता है, अयन सक्राम्ति पर ठोल के ताल पर नाचता है और मिष्टान खाता है । मे कभी कमी सोचा करता कि इनके यहाँ ढोड यानी पोस्तियों की जो कहानिया प्रचित ह वे यो हो नहीं, सचमुच ये बड़े आलसी होते होगे, ओर इनके पुराने दुवालयों ओर एतिहासिर राज प्रासादी के अन्दर गये परुराती शार मोगर करती देख कर मैंने एक व्यगास्मक कहानी भी लिख ढाजों थी “जब शेख चितली आसाम বাধ” चास्तव से उन्दे श्रालसीनक्द सण ही» वाःस्यायन कर आनन्दी हो कहना उचित है। हमारे साहित्य- कारों मे अनेझ जेसे अपने कमरो को सकी के जाले और कचरे से भरा, क्तायो को घूल से पटा ओर बिंद्यायन को तेच से चीऊूट रख कर अपने श्रालस्य को फक्कड़पन का लुभावना नाम देते हैं, असमियो से भ्राप बेसा नहीं पायेंगे । उनके नामघरों के भीतर ही नहीं, बाहर भी शाप कहीं एक तिनका भी स्थान से द्युत ज पायेंगे, उनके घर अध्यन्त साफ सुथरे और व्यवस्थित, आगन लिपे पुत्ते या हरियाले, कपदे सूती हो तो उजले ओर रेर्मी हों तो साफ« सुथरे ओर तरतोब से पहने हुए । उनके जलाशय निरे जोहढ या पोखर नहीं होते, बाकायदा चौरस त्यि हए शौर बोस के बाढे से घिरे हुए तान होते हैं, बडे ताल चारों ओर बन्ध से घिरे होते हैं और सागर कहलाते हैं। कितने ही হানই “गत से चले आदये, पीने फे पानो के ताल पर গাদন कपडे धुततते या वर्तन मजते नहीं मिलेंगे, ने घुल का पानी कभी ताज को ओर बहता हुआ मिलेगा, ताल वी मद्दलियाँ उसे स्वच्चु रख रही होगी, यो पर नतन काया फिल्टर का या उबला हुआ पानी पीने के आदी दो बह दूसरी बात है। मने अभी अमी सूती श्रौर रेरमी कपडे की बात कही । असम में कपास लगभग नहीं होता, মাহী पर्ववमाचा से कुछ होता है पर घटिया किस्म का और छोदे तार का, फिर भी छुपाई चहाँ घर घर में होती है और कोई भी असमिया स्प्री ऐसी नहीं होती जो घुनना न जानती हो । श्रसमियो मे मैनी था साहादं होने पर अंगों भेद करने की प्रथा है। मेरे पास दनस अच्छा खासा सग्रह है ओर थे निरप्पाद रूप से घर ही के बुने हुए होते हैं।घुनना न जाने, इससे वह कर र्रो के पूदइ्पन का लक्षण नहीं हो सकता । असमिया लोग रण ५




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